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वंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७७
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प्रदेशबंध अब क्रम प्राप्त प्रदेशबंध के स्वरूप का विचार प्रारम्भ करते हैं। उसके विचार के तीन अनुयोगद्वार हैं-१ भाग-विभागप्रमाण, २ सादि-अनादि प्ररूपणा, ३ स्वामित्व प्ररूपणा । इनमें से पहले भागविभागप्रमाण का विचार प्रारम्भ करने के प्रसंग में सर्वप्रथम आकाश प्रदेशों पर रही हुई कर्मवर्गणाओं को जिस तरह जीव ग्रहण करता है, उसको बतलाते हैं। जीव द्वारा कर्मवर्गणाओं के ग्रहण करने की प्रक्रिया
एगपएसोगाढे सव्वपएसेहिं कम्मणोजोग्गे । जीवो पोग्गलदव्वे गिण्हइ साई अणाई वा ॥७७॥
शब्दार्थ- एगपएसोगाढे- एक आकाशप्रदेश में अवगाढ रूप से रहे हुए, सव्वपएसेहि-सर्व प्रदेशों से, कम्मणोजोग्गे-कर्म के योग्य, जीवो-जीव, पोग्गल दवे -पुद्गलद्रव्य को, गिण्हइ-ग्रहण करता है, साइ- सादि, अणाईअनादि, वा-अथवा।
गाथार्थ-अभिन्न एक आकाश में अवगाढ रूप से रहे हुए कर्म के योग्य पुद्गलद्रव्य को जीव अपने सर्व प्रदेशों से ग्रहण करता है। वह पौद्गलिक ग्रहण सादि अथवा अनादि होता है।
विशेषार्थ-गाथा में सकर्मा जीव द्वारा पुद्गलद्रव्य के ग्रहण की प्रक्रिया बतलाई है
जगत में पुद्गल द्रव्य दो प्रकार के हैं । एक तो वे जो कर्मरूप से
तुलना कीजिये
एयखेतो गाढं सव्वपदेसेहिं कम्मणो जोग्गं । बंधइ जहुत्तहेउं सादिय महऽणादियं चावि ।।
दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार ४६४
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