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________________ २७० पंचसंग्रह : ५ हुए मणिबंध, कोहनी, कन्धा आदि में अनुक्रम से अल्प-अल्प क्रिया होती है। यानी क्रिया में अल्पाधिकता हो सकती है परन्तु प्रयत्न समस्त प्रदेशों में होता है। इस प्रकार जब समस्त जीवप्रदेश स्वक्षेत्रावगाढ कर्मयोग्य द्रव्यों को ग्रहण करने के लिये प्रयत्न करते हैं तब समस्त जीवप्रदेश अनन्तर और परम्परा से संपूर्णतया प्रयत्न करते हैं। ऐसा नहीं होता है कि कोई प्रदेश तो योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने का प्रयत्न करता है और अन्य प्रदेश प्रयत्न नहीं करते हैं, परन्तु प्रत्येक समय समस्त जीव प्रदेश प्रयत्न करते हैं। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये ग्रन्थकार आचार्य ने कहा है कि सर्वप्रदेशों द्वारा ग्रहण करता है। उक्त समग्र कथन का सारांश यह है कि समस्त लोक पुद्गल द्रव्य से ठसाठस भरा हुआ है और वह पुद्गलद्रव्य अनेक वर्गणाओं में विभाजित है। उक्त वर्गणाओं में से कर्मवर्गणाओं को जीव ग्रहण करता है। किन्तु प्रत्येक जीव उन्हीं कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता है जो उसके अत्यन्त निकट होती हैं- एकक्षेत्रावगाही हैं। जैसे अग्नितप्त लोहे के गोले को पानी में डाल देने पर वह उसी जल को ग्रहण करता है, जो उसके गिरने के स्थान पर है, उसे छोड़कर अन्यत्र दूरवर्ती जल को ग्रहण नहीं करता है । इसी प्रकार जीव भी जिन आकाशप्रदेशों में स्थित है, उन्हीं आकाशप्रदेशों में विद्यमान कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता है तथा वह तपा हुआ गोला जल में गिरने पर चारों ओर से पानी को खींचता है, उसो तरह जीव भी सर्व आत्मप्रदेशों से कर्मों को ग्रहण करता है। ऐसा नहीं होता है कि आत्मा के अमुक भाग से ही कर्मों का ग्रहण करता हो। इस प्रकार से जीव द्वारा कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करने की प्रक्रिया जानना चाहिये। ___ अब यदि जीव द्वारा ग्रहण किये जाते उन कर्मयोग्य पुद्गलद्रव्यों का नियत देश, काल और स्वरूप की दृष्टि से विचार किया जाये तो ग्रहण की अपेक्षा वे सादि हैं। क्योंकि वैसे स्वरूप वाले वे पुद्गलद्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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