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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाया ७८
उसी समय ही ग्रहण किये गये हैं और यदि मात्र कर्मरूपपरिणाम की दृष्टि से प्रवाहापेक्षा विचार किया जाये तो अनादि हैं। क्योंकि संसारी जीव अनादिकाल से कर्मपुद्गलों को ग्रहण करते रहते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि कर्म प्रतिसमय बंधते रहने की अपेक्षा सादि हैं और प्रवाह की अपेक्षा अनादि हैं ।
इस प्रकार से भाग- विभाग प्ररूपणा करने की पूर्व भूमिका के रूप में जीव द्वारा कर्मप्रदेशों को ग्रहण करने की प्रक्रिया का विचार किया 11 अब एक अध्यवसाय द्वारा ग्रहण किये गये कर्मदलिक के भाग- विभाग की प्ररूपणा करते हैं ।
कर्मदलिक भाग- विभाग प्ररूपणा
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कमसो वुड्ढठईणं भागो दलियस्स होइ सविसेसो । तइयस्स सव्वजेो तस्स फुडत्तं जओ णप्पे ॥७८॥
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शब्दार्थ - कमसो – क्रमशः, वुड्ढठिईणं - अधिक स्थिति वाले कर्मों का, भागो - भाग, दलियम्स - दलिक का, होइ - होता है, सविसेसो – सविशेष, अधिक, तइयस्य- तीसरे वेदनीयकर्म का, सव्वजेट्ठो - सबसे अधिक, तस्सउसका, फुडत्तं— स्फुटत्व, व्यक्तवेदन, जओ- क्योंकि, णप्पे - अल्प होने पर नहीं होता है ।
गाथार्थ - अधिक स्थितिवाले कर्मों का दलिक-भाग क्रमशः अधिक होता है । मात्र तीसरे वेदनीयकर्म का भाग सबसे ज्येष्ठअधिक होता है, क्योंकि अल्प भाग होने पर उसका स्फुटत्व-व्यक्तवेदन नहीं हो सकता है ।
१ इसी प्रकार कर्म प्रकृति बंधनकरण गा. २१ में कथन किया हैएगमवि गहणदव्वं सव्वष्पणयाए जीवदेसम्म ।
सव्वप्पणया सव्व-त्थवावि
सव्वे गहणबंधे ॥
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