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________________ ३६ पंचसंग्रह : ५ ३. अवस्थित-पहले समय में जितने कर्मों का बंध किया, दूसरे समय में भी उतने ही कर्मों के बंध करने को अवस्थित बंध कहते हैं। अर्थात् पहले और बाद के समय में एक जैसा बंध रहे वह अवस्थित बंध कहलाता है और कदाच बढ़े या घटे तो वह बंध भूयस्कार या अल्पतर संज्ञा के योग्य हो जाता है। ४. अवक्तव्य-एक भी कर्म न बाँधकर पुनः कर्म बंध करने को अवक्तव्य बंध कहते हैं । अर्थात् सर्वथा अबंधक होकर पुनः बंध का प्रारम्भ हो तब वह बंध अवक्तव्य कहलाता है । अवक्तव्य यानी नहीं कहने योग्य, ऐसा बंध जो भूयस्कार, अल्पतर अथवा अवस्थित शब्द द्वारा कहने योग्य न हो, उस बंध को अवक्तव्य कहते हैं। अबंधक होकर नया बंध प्रारम्भ करे, तो वही बंध भूयस्कार आदि शब्द द्वारा कहने योग्य न होने से अवक्तब्य कहलाता है । इसका काल एक समय का है। इसका कारण यह है कि बाद के समय में बढ़े या घटे तो वह बंध भूयस्कार, अल्पतर संज्ञा के योग्य हो जाता है । तथा जितनी प्रकृतियाँ पूर्व के समय में बाँधी थीं, उतनी ही बाद के समय में बाँधी हों तो वह बंध अवस्थित कहा जाने लगता है। क्योंकि बंध संख्या में वृद्धि हानि नहीं हुई, उतनी ही संख्या है। इस प्रकार बंध के अन्य चार भेदों का स्वरूप जानना चाहिए। वे मूल और उत्तर प्रकृतियों में जिस रीति से घटित होते हैं, उसका विचार यथाक्रम से आगे किया जायेगा। लेकिन इन बंधप्रकारों को घटित करने के लिए कर्मों के बंधस्थानों को जान लेना आवश्यक होने से अब पहले मूल कर्मों के बंधस्थानों को बतलाते हैं। १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी इसी प्रकार बंध के चार भेद और उनके लक्षण बतलाये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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