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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२
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गाथार्थ-मूल और उत्तर प्रकृतियों के बंधाश्रित भूयस्कार, अल्पतर, अवक्तव्य और अवस्थित ये चार भंग जानना चाहिए जिनका वर्णन आगे किया जायेगा उसे सुनो।
विशेषार्थ-गाथा में कर्मप्रकृतियों में सम्भव बंध के अन्य चार प्रकारों-भेदों के नाम बतलाये हैं कि- मूलप्रकृतिबंध और उत्तरप्रकृतिबंध इन दोनों के आश्रित रहे हुए यानी इन दोनों में घटित होने वाले अन्य भी चार भेद हैं। जिनके नाम हैं-१. भूयस्कार, २. अल्पतर, ३. अवक्तव्य और ४. अवस्थित। इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं
१. भूयस्कार-कम प्रकृतियों को बाँधकर दूसरे समय में उससे अधिक प्रकृतियों के बंध करने को भूयस्कार बंध कहते हैं। यानी पहले जो बंध हुआ, उससे एकादि प्रकृति का अधिक बंध करना, जैसे कि सात का बंध करके आठ का बंध करना। यह बंध भूयस्कार कह
लाता है।
२. अल्पतर-प्रथम समय में अधिक कर्मों का बंध करके दूसरे समय में कम कर्मों के बंध करने को अल्पतर बंध कहते हैं। अल्पतर बंध भूयस्कार बंध से बिल्कुल उलटा है। जैसे कि आठ कर्म बांधकर सात का बंध करना अल्पतर कहलाता है।
१ दिगम्बर साहित्य में भूयस्कार के स्थान पर भुजगार और भुजाकार शब्द का प्रयोग देखने में आता है, लेकिन लक्षण में कोई अन्तर नहीं हैअप्पंबंधिय कम्मं बहुयं बंधेइ होइ भूययारो ।
-दि० पंचसंग्रह, शतक अधिकार, गा० २३४ । २ भूयस्कार और अल्पतर इन दोनों बंधों का काल एक समय है। क्योंकि
जिस समय बढ़े या घटे, उसी समय वह बंध भूयस्कार या अल्पतर कहलाता है।
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