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बधावाध-प्ररूपणा आधकार : गाथा १३
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मूलकर्मप्रकृतियों के बंधस्थान
इगछाइ मूलियाणं बंधट्टाणा हवंति चत्तारि । अबंधगो न बंधइ इइ अव्वत्तो अओ नत्थि ॥१३॥
शब्दार्थ-इगछाइ-एक और छह आदि, मूलियाणं-मूल कर्मों के, बंधट्ठाणा -- बंधस्थान, हवंति-होते हैं, चत्तारि-चार, अबंधगो-अबंधक, न- नहीं, बंधई-बाँधता है, इइ-यहाँ, अव्वत्तो-अवक्तव्य, अओइसलिए, नत्थि-नहीं होता है।
गाथार्थ-मूल कर्मों के एक और छह आदि तीन इस प्रकार कुल चार बंधस्थान होते हैं। सभी कर्मों का अबंधक होकर पुन: उनका बंध नहीं करता है, इसलिए यहाँ अवक्तव्य बंध घटित नहीं होता है।
विशेषार्थ-गाथा में मूलकर्मों-ज्ञानावरणादि के बंधस्थानों का निर्देश करके यह स्पष्ट किया है कि उनमें कौन सा बंधप्रकार घटित हो सकता।
'इगछाइ मूलियाणं' अर्थात् मूलकर्मों के एक और छह आदि तीन कुल चार बंधस्थान हैं। यानि एकप्रकृतिक, छहप्रकृतिक, सातप्रकृतिक
और आठ प्रकृतिक, इस प्रकार कुल चार बंधस्थान मूलकर्मप्रकृतियों के होते हैं। वे चारों बंधस्थान गुणस्थानापेक्षा इस प्रकार समझना चाहिये__ जब एक सातावेदनीय रूप कर्मप्रकृति का बंध हो तब एकप्रकृतिक बंधस्थान होता है और वह उपशांतमोह आदि गुणस्थानों में जानना चाहिये । आयु और मोहनीय कर्म के बिना छह कर्म प्रकृतियों का बंध होने पर छह का बंधस्थान है और वह दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में होता है । सात कर्मों का बंध होने पर सातप्रकृतिक बंधस्थान होता
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