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पंचसंग्रह : ५ १. आठप्रकृतिक, २. सातप्रकृतिक, ३. छहप्रकृतिक, ४. एकप्रकृतिक ।
गुणस्थानों की अपेक्षा इनके बंधकों का विवरण इस प्रकार है कि – 'जा अपमत्तो सत्तट्ठबंधगा' अर्थात् पहले मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त सात गुणस्थानों में सात अथवा आठ प्रकृतिक बंधस्थान प्राप्त होता है । किन्तु इनमें तीसरे मिश्र गुणस्थान को ग्रहण नहीं करना चाहिये । जिसका ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में पृथक से निर्देश किया है ।
तात्पर्य यह है कि मिश्रगुणस्थान को छोड़कर मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक के सभी जीव समय-समय सात या आठ कर्मों का बंध करते हैं । जब आयु का बंध करते हैं तब अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त आठ का और उससे शेष रहे समयों में सात कर्मों का बंध करते हैं ।
"सुहुम छहं" - अर्थात् सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थानवर्ती जीव मोहनीय और आयु के बिना समय - समय छह कर्म का बंध करते हैं। क्योंकि इस गुणस्थानवर्ती जीव अति विशुद्ध परिणाम वाले होने से आयु का बंध करते ही नहीं है और बादर कषायोदय रूप बंध का कारण नहीं होने से मोहनीय का भी बंध नहीं करते हैं । इसीलिये सूक्ष्मसंप रायगुणस्थानवर्ती जीव छहप्रकृतिक बंधस्थान के स्वामी हैं ।
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उपशान्तमोह, क्षीणमोह, और सयोगिकेवलि नामक ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीव योग निमित्तक मात्र एक सातावेदनीय का ही बंध करते हैं । इसलिये वे एकप्रकृतिक बंधस्थान के स्वामी हैं- “ एगस्स उवसंतखीणजोगी ।" क्योंकि कषाय का उदय नहीं होने से वे शेष किसी भी कर्म को नहीं बाँधते हैं ।
'सत्तण्हं नियट्टिमोस अनियट्टी' अर्थात् आठवें अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती, तीसरे मिश्रगुणस्थान वाले और नौंवें अनिवृत्तिबादरसंप राय
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