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________________ १०२ पंचसंग्रह : ५ प्रत्येक, उपघात, एक संहनन, एक संस्थान, पराघात, विहायोगति, उच्छ्वास, स्वर और उद्योत कुल इकतीस प्रकृतियों को मिलाने से अट्ठावन प्रकृतियां होती हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि के ये सभी उदयस्थान निद्रा, भय, जुगुप्सा और उद्योत के अध्रुवोदया होने से उनको कम-बढ़ करने पर अल्पतर और भूयस्कर दोनों रूप से संभव हैं। मिथ्यादृष्टि के छियालीस से लेकर उनसठ तक के उदयस्थान होते हैं। उनका भिन्न-भिन्न गति में रहे हुए मिथ्यादृष्टि जीवों की अपेक्षा आगे सप्ततिकासंग्रह में विस्तार से विवेचन किया जा रहा है । जिनका पूर्वापर भाव का विचार करके निद्रा, भय, जुगुसा और उद्योत इन प्रकृतियों को घटा-बढ़ाकर स्वयं समझ लेना चाहिए। परन्तु किये जाने वाले कथन को सुगमता से जानने के लिये यहाँ उनका सामान्य से निर्देश करते हैं सामान्य से मिथ्यादृष्टि के विग्रहगति में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, वेदनीय एक, मोहनीय की अनन्तानुबन्धी क्रोधादि में सेक्रोधादि चार, एक युगल, एक वेद और मिथ्यात्व ये आठ, आयु एक, गोत्र एक, अंतरायपंचक इस प्रकार सात कर्म की पच्चीस और नामकर्म की इक्कीस इस तरह कुल मिलाकर कम से कम छियालीस प्रकृतियों का उदय होता है । उनमें भय, जुगुप्सा और निद्रा में से कोई एक मिलाने पर सैंतालीस, दो मिलाने पर अड़तालीस और तीनों को युगपत् मिलाने पर उनचास प्रकृतिक उदयस्थान होता है । तथा भवस्थ एकेन्द्रिय को पूर्वोक्त सात कर्म की पच्चीस और नामकर्म की इक्कीस प्रकृतियों में से आनुपूर्वी को कम करके प्रत्येक, औदारिकशरीर, उपघात और हुंडकसंस्थान इन चार को मिलाने पर चौबीस, कुल मिलाकर उनचास का उदय होता है । उनमें भय, जुगुप्सा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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