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पंचसंग्रह : ५
भी गिरकर जब नौ प्रकृतियों का बंध करता है, तब दूसरा भूयस्कार होता है । इस प्रकार दो भूयस्कारबंध जानना चाहिये ।
भूयस्कारबंध से विपरीत अल्पतरबंध है । अतः नीचे के गुणस्थानों प्रकृतियों का बंध करके जब कोई जीव तीसरे आदि गुणस्थानों में छह प्रकृतियों का बंध करता है तो पहला अल्पतरबंध होता है और जब छह का बंध करके चार का बंध करता है तो दूसरा अल्पतरबंध होता है । इस प्रकार दो अल्पतरबंध जानना चाहिये ।
दर्शनावरण कर्म के चारप्रकृतिक और छहप्रकृतिक ये दो अवक्तव्यबंध होते हैं- चउ छ दुइए। वे इस प्रकार कि दर्शनावरणकर्म की सभी प्रकृतियों का बंधविच्छेद उपशांतमोहादि गुणस्थानों में होता है, अन्यत्र नहीं । उपशांत मोहगुणस्थान से दो प्रकार से प्रतिपात होता है - ९ अक्षय से और २ भवक्षय से । अद्धाक्षय यानी उपशांतमोहगुणस्थान का काल पूर्ण होने पर पतन होना और भवक्षय यानी मरण होने पर पतन होना । जो जीव उपशांतमोगुणस्थान का काल पूर्ण करके गिरता है, वह जिस क्रम से चढ़ा था उसी क्रम से पड़ता है। अर्थात् ग्यारहवें से दसवां, नौवां, आठवां आदि गुणस्थानों का स्पर्श करता हुआ गिरता है और जो जीव ग्यारहवें गुणस्थान में मरण को प्राप्त करता है वह देवायु के पहले समय में अविरतसम्यग्दृष्टि देव होता है । यानी मनुष्यायु के चरम समय पर्यन्त ग्यारहवां गुणस्थान होता है और देवायु के पहले समय में ही चौथा गुणस्थान प्राप्त होता है, मध्य के गुणस्थानों का स्पर्श नहीं करता है । अतः जब उपशांतमोहगुणस्थान का काल पूर्ण करके गिरते हुए दसवें गुणस्थान में प्रवेश करता है तब पहले समय में दर्शनावरण की चार प्रकृतियों का बंध करता है तो वह चारप्रकृतिक बंधरूप पहला अवक्तव्यबंध है तथा जब उपशांत
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यह पहले और दूसरे - मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में संभव है ।
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