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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६-१७
शब्दार्थ-भूओगारा-भूयस्कार, दोनवछयप्पतरा-दो, नौ और छह, अल्पतर, दुगट्ठसत्त-दो, आठ और सात, कमा-क्रम से मिच्छाओ-मिथ्यात्व से, सासणतं-सासादनत्व, सासादन भाव, न-नहीं, एक्कतीसेक्क-इकतीस से एक, गुरु-गुरु, बड़ा (अधिक), जम्हा-इसलिये ।
चउ-चार, छ-छह, दुइए-दूसरे (दर्शनावरण) कर्म में, नामंमि-नामकर्म में, एग गुणतीस तीस-एक, उनतीस और तीस, अव्वत्ता-अवक्तव्य, इग सत्तरस्स-एक और सत्रह य---और, मोहे -- मोहनीय कर्म में, एक्केक्को-एक एक, तइयवज्जाणं-तीसरे वेदनीयकर्म को छोड़कर।
__ गाथार्थ-दर्शनावरण, मोहनीय और नामकर्म के भूयस्कार अनुक्रम से दो, नौ और छह हैं, अल्पतर दो, आठ और सात हैं। मिथ्यात्व से सासादनभाव प्राप्त नहीं होने से मोहनीय के आठ ही अल्पतर हैं और इकतीस के बंध से एक का बांध गुरु नहीं, जिससे नामकर्म के छह भूयस्कार होते हैं।
दूसरे दर्शनावरणकर्म में चार और छह ये दो अवक्तव्यबंध हैं। नामकर्म में एक, उनतीस और तीस के बंधरूप तीन और मोहनीयकर्म में एक एवं सत्रह के बंधरूप दो अवत्त.व्यबंध हैं।
विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में मूल कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों में संभव भूयस्कार, अल्पतर और अवक्तव्य बंधों को बतलाया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
दर्शनावरण-- इसमें दो भूयस्कार, दो अल्पतर और दो अवक्तव्य बंध होते हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये कि अपूर्वकरणगुणस्थान के द्वितीय भाग से लेकर दसवें गुणस्थान तक किसी एक गुणस्थान में चार प्रकृतियों का बंध करके जब कोई जीव अपूर्वकरणगुणस्थान के द्वितीय भाग से नीचे ( मिश्रगुणस्थान पर्यन्त) आकर छह प्रकृतियों का बंध करता है तो पहला भूयस्कार होता है। यहाँ से
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