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पंचसंग्रह : ५
ज्ञानावरण की पांच प्रकृतियों का समूह रूप तथा अन्तरायकर्म की पांच प्रकृतियों का समूह रूप एक-एक बंधस्थान जानना चाहिये । वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म की एक समय में एक प्रकृति का बंध होता है । इसलिये इन तीनों कर्मों का अपना-अपना एक प्रकृतिरूप एक-एक बंधस्थान होता है । इसलिये इनमें भूयस्कार, अल्पतर बंध संभव नहीं हैं ।
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अब दर्शनावरण, मोहनीय और नाम कर्म के बंधस्थानों में भूयस्कार आदि बंधप्रकारों को घटित करते हैं । उनमें से सरल और सुबोध होने से पहले अवस्थितबंध को बतलाते हैं कि जिस कर्म की उत्तरप्रकृतियों के जितने बंधस्थान हैं, उतने ही अवस्थितबंध की संख्या समझना चाहिये । जिसका आशय यह हुआ कि दर्शनावरण के तीन बंधस्थानों के तीन अवस्थितबंध, मोहनीय के दस बंधस्थान के दस अवस्थितगंध, नामकर्म के आठ बंधस्थान के आठ अवस्थितगंध तथा ज्ञानावरण, अन्तराय, वेदनीय, आयु और गोत्र इनका एक-एक अवस्थितबंध होता है । इसके लिये स्वयं ग्रंथकार आचार्य ने निर्देश कर दिया है कि- 'अवट्टियबंधो सव्वत्थ ठाणसमो' अर्थात् अवस्थितबंध गंधस्थानों की संख्या के बराबर जानना चाहिये ।
इस प्रकार से उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों और उनमें अवस्थित - बंध को बतलाने के बाद अब उन बंधस्थानों में भूयस्कार, अल्पतर और अवक्तव्य बंधों का विवेचन करते हैं ।
उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों में भूयस्कार आदि बंधत्रय
भूओगारा दोनवछ्यप्पतरा दुगट्ठस त्तकमा । मिच्छाओ सासणत्त न एक्कतीसेक्कगुरु जम्हा ॥ १६ ॥ चउ छ दुइए नामंमि एग गुणतीस तीस अव्वत्ता । इग सत्तरस य मोहे एक्केक्को तइयवज्जाणं ॥ १७ ॥
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