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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५
एक संहनन का बंध होता है । इसमें से तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी को घटाकर मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी के मिलाने से पर्याप्त मनुष्ययोग्य उनतीस का बंधस्थान होता है ।
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ध्रुवबंधिनी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर या अस्थिर, शुभ या अशुभ, सुभग, आदेय, यशः कीर्ति या अयशःकीर्ति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, प्रथम संस्थान, देवानुपूर्वी, वैक्रिय-अंगोपांग, सुस्वर, प्रशस्त विहायोगति, उच्छवास, पराघात, तीर्थंकर, इन प्रकृतिरूप देवगति और तीर्थंकर सहित उनतीस का बंधस्थान होता है ।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तयुत उनतीस के चार बंधस्थानों में उद्योत प्रकृति को मिलाने से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तयुत तीस के चार बंधस्थान होते हैं । पर्याप्त मनुष्य योग्य उनतीस के बंघस्थान में तीर्थंकर प्रकृति को मिलाने से मनुष्यगति सहित तीस का बंधस्थान होता है । देवगति सहित उनतीस के बंधस्थान में से तीर्थंकर प्रकृति को कम कर आहाtags को मिलाने से देवगतियुत तीस का बंधस्थान होता है ।
देवगति तीर्थंकर सहित उनतीस के बंधस्थान में आहारकद्विक के मिलाने से देवगतियोग्य इकतीस का बंधस्थान होता है ।
एकप्रकृतिक बंघस्थान में केवल एक यशः कीर्ति का ही बंध होता है ।
इस प्रकार नामकर्म के आठ बंधस्थानों का विवरण जानना चाहिये ।
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दि. कर्मसाहित्य में भी चारों गतियों में संभव नामकर्म के बंधस्थानों का वर्णन किया है। देखिये दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा २६१
से ३०४ ।
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