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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा : ४६
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वर्ष की बांधते हैं तथा गाथा में आगत 'तु' शब्द अधिक अर्थ का सूचक होने से यह अर्थ हुआ कि अभव्य संज्ञी आयु को छोड़कर शेष सातों कर्मों की स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपम से हीन-हीनतर नहीं बांधता है, परन्तु जघन्य से भी अंतःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति ही बांधता है। ___ इस प्रकार से विभिन्न जीवापेक्षा स्थितिबंध का नियम जानना चाहिए । अब उत्तर प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का प्रमाण बतलाते हैं। उत्तर प्रकृतियों की जघन्य स्थिति
सुरनारयाउयाणं दसवाससहस्स लघु सतित्थाणं । इयरे अंतमुहुत्त अंतमुहुत्त अबाहाओ ॥४६॥
शब्दार्थ-सुरनारयाउयाणं-देव और नरक आयु की, दसवाससहस्सदस हजार वर्ष, लघु-जघन्य, सतित्थाणं-तीर्थकरनाम सहित, इयरे-इतरदो आयु की, अंतमुहुत्त-अन्तर्मुहूर्त, अंतमुहुत्त-अन्तर्मुहूर्त, अबाहाओअबाधा।
गाथार्थ - तीर्थंकरनाम सहित देव और नरक आयु की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है और इतर दो आयु की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और अन्तमुहूर्त अबाधाकाल है।
विशेषार्थ-गाथा में आयुकर्म की चारों उत्तर प्रकृतियों और तीर्थकरनाम की जघन्य स्थिति एवं उनका जघन्य अबाधाकाल बतलाया है कि--
अर्थात् सत्तरलाख छप्पन हजार करोड़ वर्ष का एक पूर्व होता है।
यह गाथा सर्वार्थ सिद्धि और ज्योतिष्करण्डक में भी पाई जाती है । ज्योतिष्करण्डक में 'कोडिलक्खाओ' की जगह 'सयसहस्साई' पाठ है ।
किन्तु आशय में कोई अन्तर नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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