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________________ १७८ पंचसंग्रह : ५ देवायु, नरकायु और तीर्थंकर नाम की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रमाण है। तथा इयरे-इतर मनुष्यायु और तिर्यंचायु की जघन्य स्थिति क्षुल्लकभव रूप अन्तमुहूर्त है। अब इनका अबाधाकाल बतलाते हैं कि चारों आयु और तीर्थंकरनाम की अबाधा अन्तर्मुहूर्त है और अबाधाकाल से हीन निषेक रचना काल है। अर्थात् अन्तमुहूर्त प्रमाण अबाधाकाल में दलिकरचना नहीं होती है, किन्तु उसके बाद के स्थितिस्थान से प्रारम्भ होती है । तथा पुंवेए अट्ठवासा अट्ठमुहुत्ता जसुच्चगोयाणं । साए बारसहारगविग्घावरणाण . किंचूणं ॥४७॥ यहाँ तीर्थंकरनाम की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रमाण कोई अप्रचलित मत विशेष का संकेत है। क्योंकि कर्मप्रकृतिचूणि, शतकचूणि एवं दिगम्बर कर्मग्रन्थों में सर्वत्र तीर्थंकरनाम की जघन्य स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण बतलाई है। जो अन्त:कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति से संख्यात गुणहीन जानना चाहिये । इस सम्बन्धी पाठ हैं आहारगतित्थ यरनामाणं उक्कोसओ ठिइबंधो भणिओ, तओ उक्को. साओ ठिइबंधाओ जहन्नओ ठिइबंधो संखेज्ज गुणहीणो, सोवि जहन्नओ अंतोकोडाकोडी चेव ।' __--कर्मप्रकृतिचूणि 'आहारगसरीर आहारग-अंगोवंगतित्थयरनामाणं जहण्णो ठिबंधो अंतोसागरोपमकोडाकोडी, अन्तोमुत्तमबाहा, उक्कोसाओ संखेज्जगुणहीगो जहन्नो ठिइबंधो इति ।' __ -शतकचूणि तित्थहाराणं तो कोडाकोडी जहण्ण दिबंधो। -गो कर्मकांड १४१ २ निगोदिया जीवों के भव को क्षुल्लकभव या क्षुद्रभव कहते हैं । यह भव मनुष्य और तिर्यंच पर्याय में ही होता है। क्षुल्लकभव का प्रमाण दो सौ छप्पन आवलिका है और असंख्यात समय की एक आवलिका होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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