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पंचसंग्रह : ५
इस प्रकार यथायोग्य स्पष्टीकरण के साथ समस्त उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण जानना चाहिये | 1
अब उत्तर प्रकृतियों को जघन्य स्थिति बतलाते हैं किन्तु उससे पूर्व जघन्य स्थिति के प्रमाण का सुगमता से बोध कराने के लिये तत्सम्बन्धी नियम का निर्देश करते हैं ।
उत्तर प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का नियम
पुव्वकोडीपरओ इगि विगलो वा न बंधए आउं । अंतोकोडाकोडीए आरउ अभवसन्नी उ ॥४५॥
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शब्दार्थ -- पुथ्वकोडीपरओ - पूर्वकोटि से अधिक, इगि विगलो - एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, वा — और, न-नहीं, बंधए — बांधते हैं, आउं - आयु, अंतोकोडाकोडीए— अंतः कोडाकोडी सागरोपम से, आरउ - न्यून. कम, अभवसन्नी - अभव्य संज्ञी, उ— तु ( अधिक अर्थसूचक अव्यय ) ।
गाथार्थ - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय पूर्वकोटि से अधिक आयु नहीं बांधते हैं और अभव्य संज्ञी अंत: कोडाकोडी से कम सात कर्मों की स्थिति का बंध नहीं करते हैं ।
विशेषार्थ - गाथा में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि के आयुबंध के सम्बन्ध में नियम बतलाया है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव एक पूर्वकोटि से अधिक परभव की आयु का बंध नहीं करते हैं । अर्थात् एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय परभव की उत्कृष्ट आयु एक करोड़ पूर्व '
१ दिगम्बर पंचसंग्रह शतक अधिकार गा. ३६१ से ४०८ तक में भी मूल एवं उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण बतलाया है । जो सामान्यतया वहाँ किये गये वर्णन से मिलता है ।
२ पूर्व का परिमाण इस प्रकार बतलाया है
पुत्रस्स उ परिमाणं सयरी खलु होंति कोडिलक्खाओ । छपन्नं च सहस्सा बोद्धव्वा वास कोडीणं ॥
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