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________________ बधावधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४४ १७५ का तीसरे भव में निकाचित बंध किया है यानी अवश्य भोगा जाये इस रीति से व्यवस्थित किया है, उसकी स्वरूप सत्ता का तिर्यंचभव में निषेध किया है परन्तु जिसको उद्वर्तना और अपवर्तना हो सकती है ऐसे अनिकाचित तीर्थंकरनाम की सत्ता का तिर्यंचभव में निषेध नहीं किया है । अनिकाचित तीर्थंकरनाम की सत्ता तिर्यंचभव में हो तो उसमें कोई दोष नहीं है । यह कथन स्वकल्पित नही है किन्तु अन्य आचार्यों ने भी इसी प्रकार बतलाया है । विशेषीणवती ग्रन्थ में कहा है तिरिएसु नत्थि तित्थयरनाम सत्तन्ति देसिथं समए । कह य तिरिओ न होही, अयरोवम कोडिकोडीए ॥ २ ॥ तं पि सुनिकाइयस्सेव तइयभवभाविणो विनिद्दिट्ठ । अणिकाइयम्मि बच्चs सव्वगईओ वि न विरोहो ॥ २ ॥ अर्थात् तीर्थंकर नाम की सत्ता तिर्यचभव में नहीं है, ऐसा जिनप्रवचन में कहा है, परन्तु तीर्थंकरनाम की उत्कृष्ट स्थिति अन्त:कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कही है, उतनी स्थिति में तीर्थंकरनामकर्म की सत्तावाला तिर्यंच क्यों नहीं होता है ? उतनी स्थिति में तिर्यंच अवश्य होता ही है । क्योंकि तिर्यंच भव में भ्रमण किये बिना उतनी स्थिति की पूर्णता होना अशक्य ही है । इसका उत्तर यह है - तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता तिर्यंच में नहीं होती है, ऐसा जो सिद्धान्त में कहा गया है वह तीसरे भव में होने वाली सुनिकाचित तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता की अपेक्षा कहा गया है, किन्तु सामान्य सत्ता की अपेक्षा नहीं कहा गया है । इसलिये अनिकाचित तीर्थंकर नाम की सत्ता होने पर सभी चारों गतियों में जाये, इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है । अर्थात् अनिकाचित बंध होने पर तिचभव की भी प्राप्ति होती है तो इसमें कोई दोष नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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