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________________ १७४ पंचसंग्रह : ५ . गाथार्थ- अन्तःकोडाकोडी सागरोपम की स्थिति वाला तीर्थंकरनाम सत्ता में होने पर भी इतने काल तक तिर्यच क्यों नहीं होता है ? यदि कुछ काल तक होता है तो आगम से विरोध आता है। विशेषार्थ-गाथा में पूर्वपक्ष के रूप में शंका प्रस्तुत की गई है अन्तःकोडाकोडी सागरोपम की स्थितिवाला तीर्थंकरनाम जब सत्ता में हो तब क्या उतने काल पर्यन्त तिर्यंच नहीं होता है ? कदाचित् यह कहो कि नहीं होता है, तो ऐसा नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि त्रसकाय की उत्कृष्ट स्वकाय स्थिति दो हजार सागरोपम की है और उसके बाद जीव मोक्ष में न जाये तो अवश्य स्थावर होता है। इसलिये तिर्यंच गये बिना उतनी स्थिति पूर्ण हो नहीं सकती है और यदि यह कहा जाये कि कुछ काल के लिये तिर्यंच में जाता है तो आगम-विरोध होता है। क्योंकि आगम में यह कहा गया है कि तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता वाला तिर्यंच में नहीं जाता है। यह शंका का पूर्वपक्ष है। जिसके समाधानार्थ ग्रन्थकार आचार्य बतलाते हैंजमिह निकाइय तित्थं तिरियभवे तं निसेहियं संतं । इयरंमि नत्थि दोसो उवट्टणवट्टणासज्झे ॥४४॥ शब्दार्थ-जमिह~-यहाँ जो, निकाइय-निकाचित, तित्थं-तीर्थंकर नामकर्म, तिरियभवे-तिर्यंचभव में, तं-उसकी, निसेहिय-निषेध की है, संत-सत्ता, इयरमि-इतर-अनिकाचित में, नत्थि-नहीं है, दोसोदोष, उवणवणासज्झ-उद्वर्तना अपवर्तना साध्य में । गाथार्थ-यहाँ जो निकाचित तीर्थकरनामकर्म है, उसकी सत्ता का तिर्यंचभव में निषेध किया है किन्तु इतर में अर्थात् उद्वर्तना अपवर्तना साध्य अनिकाचित सत्ता में कोई दोष नहीं है। विशेषार्थ-शंका का समाधान करते हुए आचार्य स्पष्ट करते हैं कि जमिह-अर्थात् यहाँ-जिन प्रवचन में जिस तीर्थकरनामकर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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