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________________ १७३ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४३ की स्थिति अनिकाचित, अल्प-निकाचित और गाढ़निकाचित इस प्रकार तीन तरह की है। इनकी अनिकाचित उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपम और अल्प-निकाचित अन्तःकोडाकोडी का संख्यातवां भाग और गाढ़निकाचित ऊपर कहे अनुसार तेतीस सागरोपम आदि है। ___ इस प्रकार से तीर्थकरनाम और आहारकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति का कथन करने के साथ सभी उत्तरप्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध का वर्णन पूर्ण होता है। अब अनिकाचित अवस्था में जो तीर्थंकरनामकर्म की अन्तःकोडाकोडी सागरोपमरूप उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है, उसके बारे में प्रस्तुत एक शंका का समाधान करते हैं । तीर्थकरनाम की उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी प्रश्न अंतोकोडाकोडी ठिइए वि कहं न होइ ? तित्थयरे । संते कित्तियकालं तिरिओ अह होइ उ विरोहो ॥४३।। शब्दार्थ-अंतोकोडाकोडी-अन्तःकोडाकोडी, ठिइए-स्थिति वाला, वि-भी, कह-क्यों, न-नहीं, होइ-होता है, तित्थयरे-तीर्थकर में, संते-सत्ता में, कित्तियकालं-कुछ काल तक, तिरओ-तियंच, अह-यदि, होइ-होता है, उ- तो, विरोहो-विरोध । १ अनिकाचित ऐसी स्थिति का नाम है, जिसमें उद्वर्तन-अपवर्तन सम्भव है और कदाचित् सत्ता से भी निकल जाये। अल्पनिकाचित करणसाध्य है और गाढ़निकाचित करण असाध्य है। अल्पनिकाचित स्थिति की अपवर्तना होकर कम हो सकती है और गाढनिकाचित जितनी स्थिति होगी, उतनी बराबर भोगी जायेगी। विद्वज्जन एतद् विषयक विशेष स्पष्टीकरण करने की कृपा करें। तीर्थंकरनाम की निकाचित स्थिति का बंध तीसरे भव में ही होता है । लेकिन आहारकद्विक के लिए ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है कि तीसरे भव में ही निकाचित स्थिति का बंध हो। आहारकद्विक की स्थिति पल्योपम का असंख्यातवां भाग गाढ़निकाचित होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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