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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८४, ८५ २८५ होइ–होता है, जहन्नो-जघन्य, अपज्जत्तगस्स-अपर्याप्तक के, सुहमनिगोयजीवस्स-सूक्ष्म निगोदिया जीव के, तस्समउप्पन्नग-उसी समय उत्पन्न के, सत्तबंधगस्स-सात कर्म के बंधक के, अप्पविरियस्स-अल्प वीर्य वाले, जघन्य योगी के। एक्क-एक, समय-समय, अजहन्नो-अजघन्य, तओ-तत्पश्चात्, . साइ-सादि, अधुवा–अध्र व, वोवि-दोनों ही। गाथार्थ-इन छह कर्मों के बंधक उत्कृष्ट योगी के उत्कृष्ट प्रदेशबंध सादि, अध्र व है । वहाँ से गिरने पर अनुत्कृष्ट होता है तथा अनादि, अध्रुव और ध्रुव सुगम हैं। उसी समय-प्रथम समय-उत्पन्न जघन्य योगी सात कर्म के बंधक अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव के एक समय पर्यन्त जघन्य प्रदेशबंध होता है, तत्पश्चात् अजघन्य होता है । ये दोनों सादि, अध्रुव हैं। विशेषार्थ-उक्त गाथाओं में आयु और मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरण आदि छह कर्मों के उत्कृष्ट आदि चारों बंधप्रकारों के सादि आदि विकल्प होने के कारण का निर्देश किया है। जिसका सविस्तार स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'छब्बंधगस्स' अर्थात् मोहनीय और आयु के सिवाय ज्ञानावरणादि छह कर्मों के बंधक उत्कृष्ट योगी सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवर्ती क्षपक अथवा उपशमक जीव के एक अथवा दो समय पर्यन्त मोह और आयु के बिना छह कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है। उसके उसी समय होने से सादि और दूसरे या तीसरे समय विच्छिन्न होने से अध्र वसांत है। उक्त उत्कृष्ट प्रदेशबंध के अतिरिक्त अन्य सब प्रदेशबंध अनुत्कृष्ट है । वह अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध उत्कृष्ट प्रदेशबंध करके वहाँ से गिरने पर होता है। जिससे वह सादि है। अथवा उपशांतमोहगुणस्थान में www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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