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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६८
३३१ सम्यक्त्व से पतित हुए जीवों की अपेक्षा मिथ्यात्व के उदय की सादि और पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर मिथ्यात्व का उदयविच्छेद होने से अध्र व-सांत । इस प्रकार अन्य ध्र वोदया प्रकृतियों की अपेक्षा मिथ्यात्व के उदय की यह विशेषता है। अर्थात् मिथ्यात्व के उदय के तीन प्रकार हैं-अनादि-अनन्त, अनादि-सांत और सादि-सांत। इन तीन भंगों में से पहले दो भंग अनादि-अनन्त और अनादि-सांत तो मिथ्यात्व के ध्रुवोदया होने से और ध्र वोदया प्रकृतियों के दो भंग बताये जाने से मिथ्यात्व के भी दो भंग उसी प्रकार समझ लेना चाहिए और तीसरे सादि-सांत भंग को ग्रन्थकार आचार्य ने 'तह य मिच्छस्स' पद द्वारा साक्षात् स्पष्ट बताया है।
इस प्रकार से उदय प्रकृतियों के उदय प्रकारों को जानना चाहिये। अब उदय के भेदों को बतलाते हैं। उदय के भेद
पयडीठिइमाईया भेया पुव्वुत्तया इहं नेया।
उद्दीरणउदयाणं जन्नाणत्त तयं वोच्छं॥६॥ शब्दार्थ-पपडोठिइमाईया-प्रकृति, स्थिति आदि, भेया-भेद, पुव्वुत्तया --पूर्वोक्त-पूर्व में कहे गये, इहं-यहाँ, नेया-जानना चाहिए, उद्दीरणउदयाणं-उदीरणा और उदय में, जन्नाणत-जो भेद-भिन्नता है, तयंउसको, वोच्छं-कहूंगा।
गाथार्थ-प्रकृति, स्थिति आदि जो भेद पूर्व में कहे हैं, वे यहाँ भी जानना चाहिये । उदीरणा और उदय में जो भेद-भिन्नता है, उसको कहूँगा।
विशेषार्थ-गाथा में उदय के भेदों का संकेत करते हुए उदय और उदीरणा में जो भेद है, उसको स्पष्ट करने का निर्देश किया है। सर्वप्रथम उदय के भेदों का निर्देश करते हैं
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