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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५
त्रीन्द्रिय जीवों के लिये त्रीन्द्रियजाति का और चतुरिन्द्रिय जीवों के लिये चतुरिन्द्रियजाति का उल्लेख करना चाहिये ।
(ग) ध्रुवोदया बारह प्रकृतियों के साथ तिर्यंचगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त अपर्याप्त में से एक, सुभग- दुभंग में से एक, आदेय - अनादेय में से एक, यशः कीर्ति अयशः कीर्ति में से एक, इन नौ प्रकृतियों को मिलाने पर इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह उदयस्थान भव के अपान्तरालगति में विद्यमान तिर्यंचपंचेन्द्रिय के होता है ।
(घ) तिर्यंचपंचेन्द्रिय के समान सामान्य मनुष्य का इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये । किन्तु मनुष्य के लिए तिर्यंचगतिद्विक के स्थान में मनुष्यगतिद्विक का उदय कहना चाहिये । शेष प्रकृतियों के नाम पूर्ववत् हैं ।
(ङ) पूर्व में बताये गये अतीर्थ केवली के बीसप्रकृतिक उदयस्थान में तीर्थंकर प्रकृति को मिला देने पर इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है ।
(च) नामकर्म की ध्रुवोदया बारह प्रकृतियों के साथ देवगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग-दुर्भग में से एक, आदेयअनादेय में से एक, यशः कीर्ति - अयश कीर्ति में से एक, इन नौ प्रकृतियों को मिलाने पर देवगति - प्रायोग्य इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है ।
(छ) नामकर्म की ध्र वोदया बारह प्रकृतियों के साथ नरकगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, स, बादर, पर्याप्त, दुर्भग, अनादेय और अयश:कीर्ति इन नौ प्रकृतियों को मिलाने पर नरकगति प्रायोग्य इक्कीस - प्रकृतिक उदयस्थान होता है ।
३ - पूर्वोक्त एकेन्द्रिय प्रायोग्य इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान में से तिर्यंचगत्यानुपूर्वी को कम करके औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, उपघात और प्रत्येक - साधारण में से कोई एक, इन चार प्रकृतियों को
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