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पंचसंग्रह : ५
ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, अनन्तानुबंधी रहित अप्रत्याख्यानावरणादि क्रोधादि तीन कषाय, तीन वेद में से एक वेद, युगलद्विक में से अन्यतर एक युगल, ये मोहनीय की छह प्रकृतियां, इस प्रकार घातिकर्मों की कुल बीस प्रकृतियों के साथ चार गतियों में से कोई एक गति, चार आनुपूर्वियों में से गति के अनुसार एक आनुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग दुभंग में से से कोई एक, आदेय - अनादेय में से कोई एक यश: कीर्ति अयशः कीर्ति में से कोई एक, निर्माण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क इस प्रकार नामकर्म की इक्कीस, चार आयु में से एक आयु, दो वेदनीय में से एक वेदनीय, दो गोत्र में से एक गोत्र कुल मिलाकर अघातिकर्मों की चौबीस प्रकृतियों को मिलाने पर चवालीस प्रकृतियां होती हैं । इन चवालीस प्रकृतियों का उदय विग्रहगति में वर्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि के होता है ।
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पूर्वोक्त चवालीस प्रकृतियों में सम्यक्त्वमोहनीय, भय और जुगुप्सा में किसी एक प्रकृति को मिलाने पर पैंतालीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है ।
पूर्वोक्त चवालीस प्रकृतियों में सम्यक्त्वमोहनीय भय अथवा सम्यक्त्वमोहनीय-जुगुप्सा अथवा भय-जुगुप्सा इन दो-दो प्रकृतियों को मिलाने पर छियालीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इस प्रकार छियालीस प्रकृतिक उदयस्थान के तीन विकल्प हैं और चवालीस प्रकृतियों में सम्यक्त्वमोहनीय, भय और जुगुप्सा इन तीनों के युगप न् मिलाने से सैंतालीस प्रकृतिक उदयस्थान है ।
भवस्थ क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव अथवा नारक के पूर्व में कही गई चवालीस प्रकृतियों में से आनुपूर्वी को कम करके वैक्रियद्विक, प्रत्येक, उपघात और समचतुरस्रसंस्थान इन पांच प्रकृतियों को जोड़ने पर अड़तालीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इन अड़तालीस प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं
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