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________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६ हह ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, मोहनीय की छह प्रकृति ( जिनके नाम चवालीस प्रकृतिक उदयस्थान में कहे हैं), अन्तरायपंचक तथा विग्रहगति में जो नामकर्म की इक्कीस प्रकृतियां बतलाई हैं उनमें से आनुपूर्वी को कम करके पूर्वोक्त वैक्रियद्विक आदि पांच सहित पच्चीस, गोत्र एक, वेदनीय एक, आयु एक, इस प्रकार अड़तालीस प्रकृतियों का उदय भवस्थ क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव या नारक को होता है । पूर्वोक्त अड़तालीस प्रकृतियों में भय, जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय' इन तीन में से किसी एक को मिलाने पर उनचास प्रकृतिक उदयस्थान होता है तथा अड़तालीस प्रकृतियों में भय - सम्यक्त्वमोहनीय, जुगुप्सा - सम्यक्त्वमोहनीय अथवा भय-जुगुप्सा इस प्रकार कोई भी दो-दो प्रकृतियों के मिलाने पर पचास प्रकृतिक उदयस्थान होता । इस प्रकार पचास प्रकृतिक उदयस्थान के तीन विकल्प होते हैं तथा अड़तालीस प्रकृतियों में भय, जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय को युगपत् मिलाने पर इक्यावन प्रकृतिक उदयस्थान होता है । अथवा पूर्व में देव और नारक योग्य जो अड़तालीस प्रकृतियां बत १ नारकों में हुण्डसंस्थान आदि अशुभ प्रकृतियों का ही उदय समझना चाहिए । २ भय और जुगुप्सा का उदय प्रत्येक को नहीं भी होता है, परन्तु कभी दोनों में से एक का, कभी दोनों का उदय होता है और किसी समय दोनों में से एक का भी उदय नहीं होता है । इसीलिए अदल-बदल कर मिलाने का संकेत किया है । ३ सम्यक्त्वमोहनीय का उदय क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी के ही होता है । इस लिये जहाँ भी सम्यक्त्वमोहनीय के उदय का उल्लेख हो वहाँ यह समझना चाहिए कि उस उदयस्थान वाला क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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