________________
पंचसंग्रह : ५
विशेषार्थ - नपुंसक वेद, स्त्रोवेद, शोकमोहनीय, अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क, अरतिमोहनीय इन आठ प्रकृतियों के सिवाय शेष रही दर्शनमोहनीयत्रिक, अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा रूप मोहनीयकर्म की बीस प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय अन्तरकरण करके देवलोक में जाने पर वहाँ उदयावलिका के चरम समय में होता है ।
३८२
उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि कोई क्षपितकर्मांश उपशम सम्यग्दृष्टि उपशम सम्यक्त्व से गिरकर जब अन्तरकरण का समयाधिक आवलिका काल शेष रहे तब दूसरी स्थिति में से सम्यक्त्वमोहनीय के दलिकों को खींचकर अन्तरकरण की अन्तिम आवलिका में गोपुच्छाकार रूप से पहले समय में अधिक, दूसरे समय में विशेषहीन, तीसरे समय में विशेषहीन, इस तरह चरम समय पर्यन्त विशेषहीनविशेषहीन स्थापित करता है । इस प्रकार की अवस्था में समयाधिक काल पूर्ण हो और यदि मिथ्यात्वमोहनीय का उदय हो तो उसका, मिश्रमोहनीय का उदय हो तो उसका और सम्यक्त्वमोहनीय का उदय हो तो उसका, उदयावलिका के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय होता है ।
4
दर्शन मोहत्रिक के सिवाय शेष सत्रह प्रकृतियों का उपशमश्र ेणि में अन्तरकरण करके श्रेणि में ही कालधर्म को प्राप्त कर देवलोक में जाये तो वहाँ पहले समय में हो दूसरी स्थिति से दलिकों को खींचकर उदय समय से लेकर गोपुच्छाकार रूप से इस प्रकार स्थापित करे कि उदय समय में अधिक, दूसरे समय में विशेषहीन, तीसरे समय में विशेषहीन, इस प्रकार विशेषहीन- विशेषहीन आवलिका के चरम समय पर्यन्त स्थापित करे तो आवलिका के चरम समय में रहते पूर्वोक्त सत्रह प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय होता है ।
अब देवलोक में नपुंसकवेद आदि आठ प्रकृतियों के निषेध के और सत्रह प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशोदय होने के कारण को स्पष्ट करते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org