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बंध विधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२४
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गाथार्थ - नपुंसकवेद, तिर्यंचगति, स्थावर और नीचगोत्र का जघन्य प्रदेशोदय मतिज्ञानावरण के समान जानना चाहिये और स्त्यानद्धत्रिक का इन्द्रियपर्याप्ति से पर्याप्त के प्रथम समय में होता है ।
विशेषार्थ - नपुंसक वेद, तिर्यंचगति, स्थावरनाम और नीचगोत्र इन चार प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व मतिज्ञानावरण के जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व के सदृश समझना चाहिये । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिस प्रकार से मतिज्ञानावरण का एकेन्द्रिय के जघन्य प्रदेशोदय बताया है, उसी तरह से इन चार प्रकृतियों का भी उस एकेन्द्रिय के जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिये ।
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'गिद्धति' अर्थात् निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानद्धि रूप स्त्यानद्धित्रिक का जघन्य प्रदेशोदय भी मतिज्ञानावरण के समान ही जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि मात्र इन्द्रियपर्याप्ति से पर्याप्त के प्रथम समय में उदय होने पर समझना चाहिये । क्योंकि उसके बाद के समय से तो इन तीन निद्राओं की उदीरणा सम्भव होने से जघन्य प्रदेशोदय नहीं हो सकता है । तथा
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अपुमित्थि सोग पढमिल्ल अरइ रहियाण मोहपगईणं । गए सुरेसु उदयावली
अंते ॥ १२४॥ सोग-शोकमोहनीय,
अंतरकरणाउ
स्त्रीवेद,
शब्दार्थ - अपुमित्थि नपुंसक वेद, पढमिल्ल - प्रथम ( अनन्तानुबंघि) कषाय, अरइ — अरति, रहियाण – रहित, मोहपगणं - मोहनीय प्रकृतियों का अंतरकरणाउ - अन्तरकरण से, गए— गये हुए, सुरेसु - देवों में, उदयावली अंते - उदयावलिका के अन्तिम समय में ।
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गाथार्थ - नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, शोकमोहनीय, प्रथम कषाय (अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क ) और अरतिमोहनीय से रहित शेष मोहनीय की प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय अन्तरकरण करके देवों में गए हुए के उदयावलिका के अन्तिम समय में होता है ।
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