SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८० पंचसंग्रह : ५ बताया है, उसी प्रकार से इन दस प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिए । निद्रा और प्रचला के जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व को भी पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए | परन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थितिबंध कर गिरे हुए और निद्रा व प्रचला के उदय में वर्तमान जीव के इन दो प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय होता है । यहाँ उत्कृष्ट स्थिति बांध कर पतित हुआ जीव कहने का कारण यह है कि उत्कृष्ट स्थिति का बंध अतिशय संक्लिष्ट परिणाम वाले के होता है और अतिसंक्लिष्ट परिणाम होने पर निद्राद्विक का उदय सम्भव नहीं है और यहाँ जघन्य प्रदेशोदय का विचार किया जा रहा है । इसीलिए उत्कृष्ट स्थिति का बंध कर पतित-निवृत्त हुए जीव का ग्रहण किया है । तथा इंदियपज्जत्तीए पढमे मसरिसं वरिसवरं तिरियगई थावरं च नीयं य । समयंमि गिद्धितिये ॥ १२३ ॥ शब्दार्थ - महसरिसं - मतिज्ञानावरण के समान, बरिसवरं - नपुंसकवेद, तिरियगई – तिर्यंचगति, थावरं -- स्थावर, च - और, नीयं – नोचगोत्र, य-और, इंदियपज्जतीए इन्द्रियपर्याप्ति से पर्याप्त के, पढमे – पहले, समयंमि - समय - ----- में, निद्धिति - स्त्यानद्धित्रिक का । - १ उक्त समग्र कथन का सारांश यह है कि कोई क्षपितकर्माश जीव संयम प्राप्त करे और उसके कारण देवों में उत्पन्न हो, वहाँ अन्तर्मुहूर्त बीतने के बाद मिथ्यात्व को प्राप्त करे और इतने समय में उदय, उदीरणा द्वारा बहुत से दलिकों को कम करे, मिथ्यात्व में जाकर संक्लेशवशात् उत्कृष्ट स्थिति बांधे और बहुत से दलिकों की उद्वर्तना करे, जिससे नीचे के स्थानों में अल्पप्रमाण में दलिक रह जाते हैं । ऐसे देव के वेदनीयद्विक आदि दस प्रकृतियों का बंधावलिका के अन्त समम में जघन्य प्रदेशोदय होता है । निद्राद्विक का भी ऐसे ही देव के जघन्य प्रदेशोदय होता है । परन्तु इतना विशेष है कि मात्र उत्कृष्ट बंध करके निवृत्त हो और उसके बाद उनका तत्काल उदय हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy