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बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२२
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और अधिक प्रदेशों की उद्वर्तना करे तब उस देव के अन्त समय में अधिक का जघन्य प्रदेशोदय होता है ।
विशेषार्थ - क्षपितकर्मांश कोई जीव संयम प्राप्त कर उसके प्रभाव से अवधिज्ञान और अवधिदर्शन उत्पन्न कर उनके साथ ही देव में जाये और वहाँ अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर मिथ्यात्व को प्राप्त हो और मिथ्यात्व के निमित्त से उत्कृष्ट स्थिति बांधे और अधिक दलिकों की उद्वर्तना करे तो ऐसा देव बंधावलिका के अन्त समय में अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण का जघन्य प्रदेशोदय करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि अवधिज्ञान को उत्पन्न करते हुए जीव सत्ता में से बहुत से दलिकों को दूर करता है, जिससे सत्ता में अल्प रहते हैं । इसी लिए अवधिज्ञानी को जघन्य प्रदेशोदय होता है । किन्तु अवधिज्ञानरहित के नहीं होता है । तथा
वेयणियउच्च सोयंत राय अरईण होइ ओहिसमो । निद्दादुगस्स उदओ उक्कोसठिईउ पडियस्स ॥ १२२ ॥
शब्दार्थ - वेयणिय - वेदनीयद्रिक, उच्च -- उच्चगोत्र, सोयंतराय - शोक, अन्तरायपंचक, अरईण — अरति का होइ— होता है, ओहिसमो - अवधिद्विक के समान, निद्दादुगस्स -- निद्राद्विक का, उदओ - उदय, उक्कोस ठिईउ उत्कृष्ट स्थिति से, पडियस्स - पतित के ।
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गाथार्थ - वेदनीयद्विक, उच्चगोत्र, शोक, अन्तरायपंचक और अरति का अवधिद्विक के समान जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिए तथा निद्राद्विक का उत्कृष्ट स्थिति से पतित निवृत्त हुए उनका उदय होने पर जघन्य प्रदेशोदय होता है ।
विशेषार्थ - 'वेयणिय...' इत्यादि अर्थात् साता - असाता रूप वेदनीयद्विक, उच्चगोत्र, शोकमोहनीय, दानान्तराय आदि अंतरायपंचक और अरतिमोहनीय इन दस प्रकृतियों के दस प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व का विचार अवधिद्विक के समान जानना चाहिए। यानी अवधिज्ञानावरण का जहाँ और जिस प्रकार से जघन्य प्रदेशोदय पूर्व में
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