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वंधविधि-प्ररूपगा अधिकार : गाथा १५४, १५५ अन्य अशुभ प्रकृतियों के प्रभूत दलिकों के प्राप्त होने से सादि है । उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वाले की अपेक्षा अनादि और ध्रुव, अध्र व क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा से जानना चाहिये । तथा
समस्त कर्मप्रकृतियों के जो विकल्प नहीं कहे गये हैं, वे सादि और अध्र व जानना चाहिये । उनमें से शुभ ध्रुवबन्धिनी और प्रसादि दशक आदि बयालीस प्रकृतियों के अनुक्त जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट ये तीनों विकल्प सादि और अध्र व इस तरह दो प्रकार के हैं। इनमें से उत्कृष्ट के सादि, अध्र वत्व भंग का विचार पूर्व में किया जा चका है और जघन्य, अजघन्य इन दो विकल्पों के सादि और अध्र व भंगों का विचार जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामी कौन हैं ? के प्रसंग से अपने आप कर लेना चाहिये।
ध्र वसत्ता वाली एक सौ चौबीस प्रकृतियों के जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट इन तीन विकल्पों के सादि और अध्र व इस तरह दो भंग हैं। इनमें से जघन्य के सादि और अध्र व भंग का विचार पहले किया जा चुका है और पूर्वोक्त बयालीस प्रकृतियों के सिवाय शेष सभी कर्म प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये दोनों विकल्प गुणितकाश मिथ्यादृष्टि के होते हैं। इसलिये वे दोनों सादि और अध्रुव हैं।
इसी प्रकार अनन्तानुबन्धिचतुष्क, संज्वलन लोभ और यशःकीर्ति के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये दोनों विकल्प भी जान लेना चाहिये। जघन्य का विचार तो पहले किया जा चुका है।
ध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों से शेष रही अध्र वसत्ता वाली होने से अध्र वसत्ताका प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चारों विकल्प सादि और अध्र व जानना चाहिये ।
पूर्वोक्त प्रकार से प्रदेशसत्ता की अपेक्षा उत्तर प्रकृतियों के सादि आदि अंगों का विचार करने के बाद अब स्वामित्व का विचार करते हैं । वह दो प्रकार का है-उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामित्व, जघन्य
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