SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३६ पंचसंग्रह : ५ प्रदेशसत्कर्मस्वामित्व। इन दोनों में से पहले उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामियों का निर्देश करते हैं। उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामित्व संपुण्णगुणियकम्मो पएसउक्कस्ससंत सामोओ। तस्सेव सत्तमा निग्गयस्स काणं विसेसो वि ॥१५६॥ शब्दार्थ-संपुण्णगुणियकम्मो—सम्पूर्ण गुणितकर्मीश, पएस उक्कस्स. संत-उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का, सामीओ-स्वामी, तस्सेव-उसी के, सत्तमासातवीं पृथ्वी, निग्गयस्स-निर्गत-निकले हुए के, काणं-किन्हीं प्रकृतियों के विषय में, विसेसो वि-विशेष भी। ___गाथार्थ–सम्पूर्ण गुणितकर्मांश जीव प्रायः उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी है तथा सातवीं पृथ्वी से निर्गत उसी के कितनी ही प्रकृतियों के विषय में विशेष भी है। विशेषार्थ- यहाँ उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के सम्भव स्वामी का सामान्य से निर्देश किया है_ 'संपुण्णगुणियकम्मो' अर्थात् सातवीं नरकपृथ्वी की अपनी आयु के चरम समय में वर्तमान सम्पूर्ण गुणितकर्माश नारकी प्रायः समस्त कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी जानना चाहिये । किन्तु उसी सातवीं नरकपृथ्वी में से निकले हुए गुणितकर्मांश जीव के कतिपय प्रकृतियों के सम्बन्ध में विशेष भी है। जिसका वर्णन यथाक्रम से आगे किया जा रहा हैमिच्छमीसेहिं कमसो संपकि बत्तहिं मीससम्मेसु । परमं पए ससंतं कुणई नपुसस्स ईसाणी ॥१५७॥ शब्दार्थ-मिच्छमीसेहि-मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय को, कमसो-क्रमशः, संपक्खित्तहि-प्रक्षिप्त करने के द्वारा, मोससम्मेसु--मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय में, परमं-उत्कृष्ट, पएससंतं-प्रदेशसत्ता, कुणइकरता है, नपुंसस्स-नपुंसकवेद की, ईसाणी-ईशानी देव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy