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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३
२२३ दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिबंध करते हैं। क्योंकि देव और नारकों के इन के बंध का अभाव है। जिसका कारण यह है कि तिर्यचायु और मनुष्यायु को छोड़कर शेष प्रकृतियों को देव और नारक भवस्वभाव से ही नहीं बांधते हैं तथा तिर्यंचायु और मनुष्यायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध देवकुरु और उत्तरकुरु के युगलियों की आयु बंध करते समय होता है। देव और नारक तथास्वभाव से वहाँ उत्पन्न होते नहीं हैं। इसलिए तिर्यंच और मनुष्य आयु के उत्कृष्ट स्थितिबंधक देव और नारक नहीं हैं । परन्तु तिर्यंच और मनुष्य ही होते हैं और उनमें भी जो पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले पूर्वकोटि के तीसरे भाग के प्रथम समय में वर्तमान मिथ्यादृष्टि और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम में वर्तमान हों वे ही होते हैं । क्योंकि सम्यग्दृष्टि तिर्यच, मनुष्यों के तिर्यच और मनुष्य आयु का बंध ही नहीं होने से तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम वाले मिथ्यादृष्टि को ग्रहण किया है। _ नरकायु की उत्कृष्ट स्थिति के बधक भी तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि तिर्यच और मनुष्य होते हैं। अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम वालों के आयु का बंध होना असंभव होने से तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामी को ग्रहण किया है । तथा
तिर्यचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिक-अंगोपांग, उद्योत और सेवार्तसंहनन इन छह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम वाले देव अथवा नारक बांधते हैं । इन छह प्रकृ
१ अत्यत विशुद्ध एवं अत्यन्त संक्लिष्ट परिणामों के होने पर आयुबंध नहीं
हाता है । इसलिये यहाँ अत्यत विशुद्ध परिणाम वाला न कहकर तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम वाले को ग्रहण किया है-तत्प्रयोग्यविशुद्धिस्थानोपेता वेदितव्याः नात्यंत विशुद्धः, अत्यंतविशुद्धानामा पुर्बन्धाभावात् । अत्यंतसंक्लिष्टानामायुबंन्धासम्भवात् ।
-आ. मलयगिरि पं. सं.-टीका पृ. २३६
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