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________________ २२२ पंचसंग्रह : ५ गुणस्थान में जाते हुए चौथे गुणस्थान के चरम समय में सक्लिष्ट परिणामों में तीर्थंकरनाम का स्थितिबंध होता है और वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी करता है। प्रमत्तभाव के सन्मुख हुआ अप्रमत्तसंयत आहारकद्विक का उत्कृष्ट स्थितिबंध करता है। क्योंकि उनके बंधकों में वही उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम वाला है। देवायु का भी पूर्वकोटि की आयु वाला पूर्वकोटि के तीसरे भाग के आद्य समय में वर्तमान अप्रमत्तभाव के सन्मुख हुआ प्रमत्त संयत उत्कृष्ट स्थितिबंध करता है । एकांत सर्वविशुद्ध परिणाम वाला अप्रमत्त संयत आयु के बंध को प्रारम्भ ही नहीं करता है, मात्र प्रमत्तसंयत गुणस्थान में प्रारम्भ किये हुए बंध को अप्रमत्त पूर्ण करता है। जिसका आशय यह है कि देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला पूर्वकोटि के तीसरे भाग के प्रथमसमय में एक समय पर्यन्त करता है। उसके बाद के समय में अबाधा की हानि संभव होने से और उस समय प्रमत्तगुणस्थान होने से उत्कृष्ट स्थितिबंध नहीं होता है तथा आयु का उत्कृष्ट स्थितिबंध विशुद्ध परिणामों से होता है, इसलिये अप्रमत्तभाव के सन्मुख हुए प्रमत्त जीव को आयु की उत्कृष्ट स्थिति का बंधक कहा है। पूर्वोक्त से शेष रही शुभ अथवा अशुभ समस्त कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का बंधक सर्व संक्लिष्ट संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव है। परन्तु इसमें जो विशेषता है, वह इस प्रकार है- . देवायु के सिवाय शेष तीन आयु, नरकद्विक, देवद्विक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, वैक्रियद्विक, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन पन्द्रह प्रकृतियों का तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणाम वाले मिथ्या १ अपमत्तो बधिउं नाढवेइ पमत्तेणाढत्तमप्पमत्तो बंधेइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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