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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३
२२१ ग्दृष्टि आदि जीवों को इन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का बंध जानना चाहिए । मात्र देवायु के सिवाय उन प्रकृतियों के बंधकों में जो संक्लिष्ट परिणामी जीव हैं, वे उन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं ।
इन तीर्थंकरनाम आदि प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंधक जीवों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
पहले जिसने नरकायु का बंध किया ऐसा कोई असंयत मनुष्य क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करके तीर्थंकरनाम के बंध के विशेष बीस हेतुओं की आराधना द्वारा तीर्थकरनाम का निकाचित बंध करे किन्तु जब वह अन्तमुहूर्त आयु रहे और नरक में जाने के अभिमुख हो तब सम्यक्त्व का वमन कर देता है । जिस समय सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त करने के उन्मुख हो उस समय चतुर्थ गुणस्थान के अन्तिम समय में तीर्थकरनाम का उत्कृष्ट स्थितिबंध करता है। तीर्थ करनाम के बंधकों में ऐसा जीव ही सर्वोत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम वाला होता है । किन्तु जो जीव क्षायिक सम्यक्त्व सहित नरक में जाता है, वह सम्यक्त्व का वमन करने वाला न होने से विशुद्ध परिणाम वाला होता है। जिससे उसे तीर्थंकरनाम का उत्कृष्ट स्थितिबंध नहीं होता है ।
यहाँ क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी को ग्रहण करने का कारण यह है कि कार्मग्रन्थिकों के मत से नरक में जाने वाला जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व साथ में लेकर नहीं जाता है। अतः जब नरकों में जाने के लिए अभिमुख हो, तब उसका वमन कर देता है। जिससे चौथे से पहले
१ इसका कारण सहित स्पष्टीकरण आगे गाथा ६४ में किया जा रहा है । २ तित्थयरनामस्स उक्कोसठिई मणुस्सो असंजमो वेयगसम्मदिट्ठी पुव्वं
नरगबद्धाउगो नरगाभिमुहो मिच्छत्तं पडिवज्जिही इति अंतिमे ठिईबंधे वट्टमाणो बंधइ, तब्बंधगेसु अइसंकिलिट्ठो त्ति काउं ।
-क्षतकचूर्णि
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