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पंचसंग्रह : ५ स्वामित्व प्ररूपणा
सव्वाणवि पगईणं उक्कोसं सन्निणो कुणंति ठिइं । एगिदिया जहन्नं असन्निखवगा य काणंपि ॥६३॥ शब्दार्थ-सव्वाणवि-सभी, पगईणं-प्रकृतियों का, उक्कोसं-उत्कृष्ट, सनिणो- संज्ञी, कुणंति-करते हैं, ठिई-स्थितिबंध, एगिदिया-एकेन्द्रिय, जहानं-जघन्य, असन्निखवगा-असंज्ञी और क्षपक, य- और, काणे-कितनी ही का, पि-भी।
गाथार्थ-सभी प्रकृतियों का उष्कृष्ट स्थितिबंध संज्ञी और जघन्यस्थितिबंध एकेन्द्रिय जीव करते हैं और कितनी ही प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध असंज्ञी एवं क्षपक जीव भी करते हैं । विशेषार्थ-गाथा में सामान्य से समस्त प्रकृतियों के स्थितिबंध के स्वामियों का निर्देश किया है__ शुभ-अशुभ सभी प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध संज्ञी जीव करते हैं- 'उक्कोसं सन्निणो कुणंति' । लेकिन यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि तीर्थकरनाम, आहारकद्विक और देवायु को छोड़कर शेष एक सौ सोलह प्रकृतियों का संज्ञी मिथ्यादृष्टि एवं तीर्थंकरनाम आदि चारों प्रकृतियों का सम्यग्दृष्टि आदि संज्ञी जीव करते हैं । __तीर्थंकरनाम आदि चार प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध सम्यग्दृष्टि आदि को करने का कारण यह है कि तीर्थंकरनाम का बंधहेतु सम्यक्त्व और आहारकद्विक का विशिष्ट संयम है। तथा देवायु की उत्कृष्ट स्थिति सर्वार्थसिद्ध विमान में है और वहाँ विशिष्ट संयम के निमित्त से उत्पत्ति होती है। यानी उसके स्थितिबंध में भी संयम हेतु है। इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव को इन प्रकृतियों का बंध मूलतः असंभव होने से सम्य
१ सम्मत्तगुणनिमित्त तित्थयरं संजमेण आहारं ।
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