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पंचसंग्रह : ५
बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीति और तीर्थकरनाम । वुल मिलाकर इन चौंतीस प्रकृतियों की अपने-अपने क्षय के चरम समय में जो एक समय मात्र स्थिति है, वह उन प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता है—'उदयवईणगठिइ' । ___ अब अनुदयवती प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता का निर्देश करते हैं कि दस प्रकृतियों को छोड़कर शेष एक सौ चौदह अनुदयवती प्रकृतियों का जिस समय नाश होता है, उससे पूर्व के समय में स्वरूप की अपेक्षा समय मात्र स्थिति अन्यथा स्वरूप और पररूप की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति अनुदयवती प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता जानना चाहिये- 'अणुदयवइयाण दुसमया एगा होइ जहन्नं सत्त'। इसका कारण यह है कि अनुदयवती प्रकृतियों के दलिक चरम समय में स्तिबुकसंक्रम के द्वारा स्वजातीय उदयवती प्रकृतियों में संक्रांत होकर उस रूप में अनुभव किये जाते हैं। जिससे चरम समय में अनुदयवती प्रकृतियों के दलिक स्वरूप से सत्ता में नहीं होते हैं परन्तु पररूप से होते हैं । इसलिए स्वरूप की अपेक्षा समय मात्र और स्वपर दोनों की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति जघन्य स्थितिसत्ता समझना चाहिए । तथा
_ 'दसण्ह पुण संकमो चरिमो' अर्थात् दस प्रकृतियों का (जिनका नामोल्लेख आगे की गाथा में किया गया है) जो चरम संक्रम होता है, वह उनकी जघन्य स्थितिसत्ता है। वे दस प्रकृतियां इस प्रकार
हासाइ पुरिसकोहाइ तिन्नि संजलण जेण बंधुदए। वोच्छिन्ने संकमइ तेण इहं संकमो चरिमो ॥१४७
शब्दार्थ-हासाइ-हास्यादि षट्क, पुरिस-पुरुष वेद, कोहाइ-क्रोधादि तिग्नि-तीन, संजलण-सज्वलन, जेण-जिससे, बंधुदए-बंध और उदय, वोच्छिन्ने-विच्छेद होने के बाद, संकमइ-संक्रान्त होती हैं, तेण-उससे, इह-यहाँ, संकमो धरिमे-चरम संक्रम ।
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