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________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५४-५५ १६६ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है, जिसमें मिथ्यात्व की सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति द्वारा भाग देने पर ३ / ७ सागरोपम प्राप्त होते हैं । उसमें से पल्योपम के असंख्यातवें भाग को कम करने पर यानी पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून ३ / ७ सागरोपम प्रमाण ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक और अन्तरायपंचक की जघन्य स्थिति एकेन्द्रिय जीव बांधते हैं, उससे कम नहीं बांधते हैं । इसी प्रकार मिथ्यात्व की पत्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून एक सागरोपम प्रमाण, कषायमोहनीय की पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून ४/७ सागरोपम प्रमाण, नोकषायमोहनीय तथा वैक्रियषट्क, आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम रहित शेष नामकर्म की प्रकृतियों और गोत्रद्विक की पत्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून २/७ सागरोपम प्रमाण जघन्य स्थिति बांधते हैं । किन्तु पंचसंग्रहकार के मतानुसार तो निद्रापंचक आदि प्रकृतियों की जो पूर्व में ३ / ७ सागरोपम प्रमाण आदि जघन्य स्थिति कही है वही एकेन्द्रिय योग्य जघन्य स्थिति समझना चाहिए तथा ज्ञानावरणपंचकादि प्रकृतियों की अन्तर्मुहूर्त आदि जघन्य स्थिति कर्मप्रकृतिचूणिकार आदि सम्मत जो पूर्व में कही है, वही जघन्य स्थिति पंचसंग्रहकार के मत से भी समझना चाहिये । अब कर्मप्रकृतिचूर्णिकार के मतानुसार एकेन्द्रिय योग्य उत्कृष्ट स्थिति को बतलाते हैं । कर्म प्रकृतिचूर्णिकार के मत से एकेन्द्रियों की जो जघन्य स्थिति कही है, उसमें पत्योपम का असंख्यातवां भाग मिलाने पर एकेन्द्रियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । जो इस प्रकार है - ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक और अन्तरायपंचक का ३ / ७ सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । इसी प्रकार मिथ्यात्व का एक सागरोपम प्रमाण, कषायमोहनीय का ४/७ सागरोपम प्रमाण, नोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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