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पंचसंग्रह : ५
शब्दार्थ - जा - जो, एगिंदि - एकेन्द्रिय की, जहन्ना - जघन्य स्थिति, पल्ला संखं ससंजुया - पल्योपम के असंख्यातवें भाग से युक्त करने से, सावह, उ — और, तेसि - उनकी, जेठा - उत्कृष्ट, सेसाण - शेष द्वीन्द्रिय आदि की, संभागहिय - असंख्यातवें भाग अधिक, जासन्नी - असंज्ञी पर्यन्त ।
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पणवीसा - पच्चीस, पन्नासा – पचास, सयं-सो, दससय- - दस सौ हजार, ताडिया — गुणा करने पर, इगिदिटिई- एकेन्द्रिय की स्थिति में, विगलासन्नणं - विकलेन्द्रियों और असंज्ञी की, कमा- -क्रम से, जायइ - होती है, जेट्ठा-उत्कृष्ट, व — और, इयरा - इतर - जघन्य, वा — और ।
गाथार्थ - एकेन्द्रिय की जघन्य स्थिति को पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समयों से युक्त करने पर उसकी उत्कृष्ट स्थिति होती है तथा शेष द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी तक की एकेन्द्रिय की जघन्य स्थिति में व पल्योपम का असंख्यातवां भाग मिलाकर उसे क्रमशः पच्चीस, पचास, सौ और हजार से गुणा करने पर द्वीन्द्रियादि को जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति होती है ।
विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी जीवों के जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थितिबंध का प्रमाण बतलाया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
एकेन्द्रिय जीव निद्रा आदि प्रकृतियों की जो जघन्य स्थिति बांधते हैं, उसमें पल्योपम के असंख्यातवें भाग को मिलाने पर जो हो उतनी एकेन्द्रिय जीव उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं और एकेन्द्रिय जीव कितनी जघन्य स्थिति बांधते हैं ? तो वह इस प्रकार जानना चाहिये
कर्म प्रकृतिकार के मत से अपनी मूल प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति द्वारा भाग देने पर जो प्राप्त हो, उसमें से पल्योपम के असंख्यातवें भाग को कम करने पर जो शेष रहे, उतनी जघन्य स्थिति एकेन्द्रिय जीव बांधते हैं । वह इस प्रकार है
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