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बंधविधिरूपणा अधिकार : गाथा ६३
क्रम
३६
३७
प्रकृतियां
३८
तीर्थंकरनाम
उच्त्रगोत्र
नीचगोत्र
उकृष्ट प्रदेशबंध स्वामित्व
देवप्रायोग्य का बंधक मनुष्य
उनतीस
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सूक्ष्म संप राय गुणस्थान
वर्ती
जघन्य प्रदेशबंध स्वामित्व
३१७
का
मनुष्यप्रायोग्य तीस बंधक सम्यग् - दृष्टि देव भवाद्य
समय में
मिथ्यादृष्टि
इस प्रकार से स्वामित्व प्ररूपणा करने के साथ यद्यपि प्रदेशबंध का विचार समाप्त होता है । किन्तु अभी तक यह नहीं बताया है कि कौन सी प्रकृति जघन्य, उत्कृष्ट से निरन्तर कितने काल पर्यन्त बंधती है ? अतः अब उनके बंधकाल का निरूपण करते हैं ।
प्रकृतियों का निरन्तर बंधकाल
भवाद्य समयवर्ती
सर्वाल्प योगी, लब्धिअपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव
33
समयादसंखकालं तिरदुगनीयाणि जाव बज्झति ।
वेउब्वियदेवदुगं पल्लतिगं
आउ अन्तमुहू ॥६३॥ शब्दार्थ –समयादसंखकालं - एक समय और असंख्यकाल, तिरहुगनीयाणि-तियंचद्विक और नीचगोत्र, जाव - पर्यन्त, बज्झति - बंध सकते हैं, वेउच्यिदेवदुगं - वं क्रियद्विक और देवद्विक, पल्लतिगं - तीन पल्योपम, आउआयु, अन्तमुहू - अन्तर्मुहूर्त |
गाथार्थ - तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र का जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल पर्यन्त और आयु का अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त निरन्तर बंध होता है ।
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