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पंचसंग्रह : ५
विशेषार्थ - गाथा में प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल का कथन प्रारम्भ करते हुए बताया है
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'तिरदुगनीयाणि' अर्थात् तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी रूप तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र ये तीन प्रकृतियां जघन्य से एक समय बंधती हैं। क्योंकि दूसरे समय में तथाप्रकार के अध्यवसाय के योग से इनकी विरोधिनी प्रकृतियों का बंध सम्भव है तथा उत्कृष्ट से असंख्य लोकाकाश प्रदेश की संख्या प्रमाण समयों तक निरन्तर बंधती हैं । इसका कारण यह है कि तेजस्काय और वायुकाय गत जीवों के ये तीन प्रकृतियां बंधती हैं किन्तु तथाभवस्वभाव से इनकी विरोधिनी मनुष्यगति आदि प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। उन दोनों की स्वकायस्थिति उतनी ही है, जिससे उक्त तीन प्रकृतियों का उतना ही उत्कृष्ट निरन्तर वंधकाल बताया है । तथा
क्रियद्विक - वैक्रियशरीर, वैक्रिय अंगोपांग और देवद्विक — देवगति, देवानुपूर्वी ये चार प्रकृतियां परावर्तमान प्रकृतियां हैं। अतः दूसरे समय में तथाप्रकार के अध्यवसाय के योग से इनकी विरोधिनी प्रकृतियां बंध सकती हैं और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम पर्यन्त बंधती हैं । क्योंकि असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच और मनुष्य जन्म से लेकर मरण पर्यन्त इन्हीं प्रकृतियों को बांधते हैं और भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यंच उत्कृष्ट से तीन पत्योपम की आयु वाले होते हैं, जिससे इन चार प्रकृतियों का उत्कृष्ट से उतना - तीन पल्योपम निरन्तर बंध का काल जानना चाहिये ।
'आउ अन्तमुहू' अर्थात् तथाप्रकार का जीवस्वभाव होने के कारण चारों आयु का उत्कृष्ट से निरन्तर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही बंध होता है । तथा
देसूणपुव्वकोडी सायं तह असंखपोग्गला उरलं । परघाउस्सासतसचउपणिदि पणसीय अयरसयं ॥६४॥
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