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________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४ शब्दार्थ - देसूणपुष्कोडी - देशोन ( कुछ कम ) पूर्व कोटि, सायं-सातावेदनीय, तह- तथा, असंखपोग्गला - असंख्य पुद्गल परावर्तन, उरलं —-ओदारिक शरीर, परधाय -- परावात, उत्सास - उच्छ्वास, तसचउ- - त्र पचतुष्क, पणिदि - पंचेन्द्रिय जाति, पणसीय-पचासी, अयर - सागरोपम, सयं सौ । - गाथार्थ - उत्कृष्ट से सातावेदनीय का देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त, औदारिकशरीरनामकर्म का असंख्यात पुद्गलपरावर्तन पर्यन्त और पराघात, उच्छ्वास, त्रसचतुष्क एवं पंचेन्द्रिय जाति का एक सौ पचासी सागरोपम पर्यन्त निरन्तर बंध होता है । ३१६ विशेषार्थ - सर्वप्रथम गाथा में सातावेदनीय के निरन्तर बंधकाल का निर्देश किया है कि 'देसूणपुव्वकोडी सायं' अर्थात् सातावेदनीय का उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि पर्यन्त निरन्तर बंध होता है । इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट से सयोगिकेवली गुणस्थान का इतनादेशोन पूर्वकोटि काल है और वहाँ मात्र सातावेदनीय का ही बंध होता "है, असातावेदनीय का नहीं। इसी कारण सातावेदनीय का उत्कृष्ट से निरन्तर बंधकाल देशोन पूर्वकोटि प्रमाण बताया है । किन्तु जघन्य से सातावेदनीय का बंधकाल एक समय है । क्योंकि परावर्तमान प्रकृति होने से दूसरे समय में तथाप्रकार के अध्यवसायरूप सामग्री के कारण उसकी विरोधिनी प्रकृति का - असातावेदनीय का बंध हो सकता है । जिससे सातावेदनीय का जघन्य से बंधकाल एक समय मात्र है 11 Jain Education International १ इसी प्रकार प्रत्येक परावर्तमान प्रकृति के लिए समझना चाहिए। जहाँ जिस किसी भी परावर्तमान प्रकृति का निरन्तर बंधकाल पल्योपम आदि कहा है, तो वहाँ उसकी विरोधिनी प्रकृति गुणप्रत्यय या मनप्रत्यय से नहीं बंधने के कारण समझना चाहिए। जहाँ विरोधी प्रकृति बंधती हो, वहाँ अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट निरन्तरकाल समझनों और जघन्य एक समय । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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