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पचसंग्रह : ५ - औदारिकशरीरनामकर्म जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से असंख्यात पुद्गलपरावर्तन काल तक बंधता है। इसका कारण यह है कि स्थावर जीव औदारिकशरीर ही बांधते हैं, वैक्रिय नहीं । क्योंकि भवस्वभाव से उनके उस शरीरनामकर्म के बंधयोग्य अध्यवसाय असम्भव हैं। स्थावर में गये हुए व्यवहारराशि के जीव उत्कृष्ट से उतने ही काल वहाँ रहते हैं।
पराघात, उच्छवास एवं त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक रूप त्रसचतुष्क और पंचेन्द्रिय जाति ये सात प्रकृतियां जघन्य से एक समय बंधती हैं और उत्कृष्ट से एक सौ पचासी सागरोपम पर्यन्त निरन्तर बंधती हैं। इन सात प्रकृतियों का निरन्तर उत्कृष्ट से एक सौ पचासी सागरोपम काल तक बंधने का कारण यह है
छठवें नरक में रहे हुए नारकों की उत्कृष्ट से बाईस सागरोपम प्रमाण आयु है। जिससे उक्त सात प्रकृतियां भवस्वभाव से उतने काल पर्यन्त वहाँ बंधती हैं, किन्तु उनकी विरोधिनी प्रकृतियां नहीं बंधती हैं। वे नारक अपने भव के अन्त में सम्यक्त्व को प्राप्त कर इन प्रकृतियों को साथ लेकर मनुष्य में उत्पन्न हों तो वहाँ भी सम्यक्त्व के प्रभाव से
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औदारिकशरीरनामकर्म का जो निरन्तर बंधकाल कहा है, वह निम्नलिखित तीन प्रकार के निगोदिया जीगों में से तीसरे प्रकार के जीवों की अपेक्षा समझना चाहिए१ जो कभी निगोद से निकले नहीं और न निकलेंगे। २ जो निगोद से पहले तो निकले नहीं, किन्तु अब निकलेंगे। ३ निगोद से निकलकर पुनः निगोद में गये ।
पहले और दूसरे की अपेक्षा तो अनुक्रम से अनादि-अनन्त और अनादि-सांत काल समझना चाहिए । सूक्ष्म निगोद भव को जिन्होंने कभी छोड़ा नहीं, वे जीव अव्यवहारराशि और शेष सभी व्यवहारराशि के कहलाते हैं।
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