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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४
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विवक्षित प्रकृतियों की प्रतिपक्षी प्रकृतियां नहीं बंधती हैं । अब यदि वह मनुष्य अनुत्तर संयम का पालन कर इकतीस सागरोपम की आयु के साथ ग्रैवेयक में देवरूप से उत्पन्न हो और वह देव तथाप्रकार के अध्यवसायों के योग से जन्म होने के बाद तत्काल मिथ्यात्व भाव को प्राप्त करे और उसके बाद च्यवनकाल में पुनः सम्यक्त्व प्राप्त कर मनुष्य में आकर उत्तम श्रावकपने को प्राप्त कर बाईस - बाईस सागरोपम की आयु से तीन बार अच्युत देवलोक को जाने के द्वारा छियासठ सागरोपम काल पूर्ण करे तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व निरन्तर इतने काल तक रह सकता है । उसके बाद अन्तर्मुहूर्त मिश्रगुणस्थान में आकर पुनः क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त कर दो बार तेतीस सागरोपम की आयु से विजयादि विमान में जाने के द्वारा छियासठ सागरोपम पूर्ण करे । इन स्थानों में इतने काल पर्यन्त भवप्रत्यय अथवा गुणप्रत्यय से उक्त प्रकृतियों की विपक्षी प्रकृतियां नहीं बंधती हैं। इस प्रकार से विवक्षित प्रकृतियों का निरन्तर एक सौ पचासी सागरोपम प्रमाण काल घटित होता है ।
यहाँ इतना विशेष है कि सम्यक्त्व सहित छठी नरकपृथ्वी से निकलकर मनुष्यभव को प्राप्त कर देशविरति की आराधना कर पम्यक्त्व सहित चार पल्योपम की आयु वाला देव होकर, वहाँ से मनुष्य में आकर सर्वविरति की आराधना कर इकतीस सागरोपम की आयु वाले ग्रैवेयक में उत्पन्न हो और वहाँ से च्युत होकर बीच-बीच में मनुष्यभव धारण करके तीन बाईस सागरोपम की आयु से अच्युत वर्ग में उत्पन्न हो । तत्पश्चात् दो बार तेतीस सागरोपम की आयु हित विजयादि विमानों में उत्पन्न हो । इस प्रकार चार पल्योपम
१ यहाँ अनुत्तर संयम से देशविरति संयम समझना चाहिए | क्योंकि छठी पृथ्वी से निकलकर मनुष्यभव में उत्पन्न जीव देशसंयम प्राप्त कर सकता है | देखिये बृहत्संग्रहणी |
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