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पंचसंग्रह : ५ अधिक एक सौ पचासी सागरोपम निरन्तर बंधकाल समझना चाहिए।
चउरंसउच्चसुभखगइपुरिससुस्सरतिगाण छावट्ठी । बिउणा मणुदुगउरलंगरिसहतित्थाण तेतीसा ॥६५॥
शब्दार्थ-चउरस-समचतुरस्र, उच्च-उच्चगोत्र, सुभखगई-प्रशस्तबिहायोगति, पुरिस-पुरुषवेद, सुस्सरतिगाण-सुस्वरत्रिक, छावट्टी-छियासठ, बिउणा-द्वि गुण, मणुदुग--मनुष्यद्विक, उरलंग-औदारिक-अंगोपांग, रिसह-बज्रऋषभनाराचसंहनन, तित्थाण-तीर्थकरनाम का, तेतीसातेतीस सागरोपम ।
गाथार्थ-समचतुरस्रसंस्थान, उच्चगोत्र, प्रशस्तविहायो. गति, पुरुषवेद, सुस्वरत्रिक का द्विगुण छियासठ सागरोपम काल तक तथा मनुष्यद्विक, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संहनन
और तीर्थंकर नामकर्म का तेतीस सागरोपम प्रमाण निरन्तर बंध काल है।
विशेषार्थ-समचतुरस्रसंस्थान, उच्चगोत्र, प्रशस्तविहायोगति, पुरुषवेद तथा सुस्वर, सुभग और आदेय रूप सुस्वरत्रिक इन सात प्रकृतियों का निरन्तर बंधकाल परावर्तमान प्रकृति होने से जघन्यतः एक समय है और उत्कृष्ट से द्विगुणछियासठ सागरोपम है। ये सभी प्रकृतियां सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यगमिथ्या दृष्टि-मिश्रदृष्टि जीवों के तो अवश्य बंधती हैं। क्योंकि इनकी विरोधिनी प्रकृतियों का सासादनगुणस्थान में बंधविच्छेद होता है। यानी उत्कृष्ट से जितने काल तक जीव सम्यक्त्वादि गुणस्थान में रह सकता है, उतने काल तक उपर्युक्त सात प्रकृतियां निरन्तर बंधती रहती हैं।
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