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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा '१५३
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शब्दार्थ-सत्तण्हं-सात का, अजहन्नं-अजघन्य, तिविहं-तीन प्रकार का, सेसा-शेष, दुहा-दो प्रकार के, पएसंमि-प्रदेश के विषय में, मूलपगईसु-मूल प्रकृतियों के, आउस्स- आयु के, साइ-सादि, अधुवाअध्र व, य-और, सम्वेवि-सभी।
गाथार्थ-सात मूल प्रकृतियों के प्रदेश के विषय में अजघन्य प्रदेशसत्कर्म तीन प्रकार का है और शेष विकल्प दो प्रकार के हैं तथा आयु के सभी विकल्प सादि, अध्र व होते हैं ।
विशेषार्थ-- गाथा में ज्ञानावरणादि आठ मूल कर्मों की उत्कृष्ट आदि प्रदेशसत्ता के प्रकारों के सादि आदि भंगों का विचार किया है
'सत्तण्हं अजहन्नं तिविहं'- अर्थात् आयु को छोड़कर शेष सात मूल कर्मों की प्रदेश सम्बन्धी अजघन्य सत्ता अनादि, ध्रव और अध्र व रूप से तीन प्रकार की है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
आयु के बिना शेष सात कर्मों की अपने-अपने क्षय के समय चरम स्थिति में वर्तमान क्षपितकर्माश जीव के जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । वह सत्ता मात्र एक समय प्रमाण होने से सादि और अध्र व है। उसके सिवाय शेष सभी प्रदेशसत्ता अजघन्य है। वह अजघन्य प्रदेशसत्ता सर्वदा होने से अनादि है । अभव्य और भव्य की अपेक्षा क्रमशः ध्रुव और अध्र व जानना चाहिये । ___ इन्हीं सात मूलकर्मों के शेष उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य ये तीनों विकल्प सादि और अध्र व हैं। उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता गुणितकर्माश सप्तम नरकपृथ्वी में वर्तमान मिथ्यादृष्टि के होती है और उसी को शेषकाल में अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। जिससे वे दोनों भंग सादि, अध्र व हैं और जघन्य भंग का विचार अजघन्य भंग के प्रसंग में किये गये अनुसार जानना चाहिये।
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