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________________ ४३० पंचसंग्रह : ५ अनुभागस्थान में अनेक जीवों की अपेक्षा उद्वर्तना-अपवर्तना के द्वारा असंख्यात भेद होते हैं। ___ अनुभाग का घात होने से अर्थात् रसघात होने के द्वारा सत्तागत अनुभाग के स्वरूप का जो अन्यथाभाव हो और उसके द्वारा जो अनुभागस्थान होते हैं वे 'हतहतोत्पत्तिक' कहलाते हैं । अर्थात् उद्वर्तना-अपवर्तना द्वारा बद्ध अनुभागस्थान के स्वरूप का अन्यथाभाव होने के बाद स्थितिघात, रसघात द्वारा जिनके स्वरूप का अन्यथाभाव होता है, वे हतहतोत्पत्तिक अनुभागस्थान हैं। यहाँ पहले उद्वर्तना-अपवर्तना द्वारा बद्ध अनुभागस्थान के स्वरूप का घात-अन्यथाभाव हुआ है और उसके वाद पुनः स्थितिघात, रसघात द्वारा हुआ है । इस तरह दो बार घात होने के द्वारा अनुभागस्थान हुए हैं । इसी कारण इनका हतहतोत्पत्तिक यह नामकरण किया गया है । ये अनुभागस्थान उद्वर्तना-अपवर्तना से उत्पन्न हुए स्थानों की अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं। क्योंकि उद्वर्तना-अपवर्तना से उत्पन्न हुए एक-एक अनुभागसत्कर्मस्थान में भिन्न-भिन्न अनेक जीवों की अपेक्षा से स्थितिघात और रसघात के द्वारा असंख्यात भेद होते हैं। इस प्रकार से अनुभागसत्कर्म का विवेचन जानना चाहिए। प्रदेशसत्कर्म अब क्रमप्राप्त प्रदेशसत्कर्म के स्वरूप का विचार प्रारम्भ करते हैं। इसके दो अर्थाधिकार हैं-सादि-अनादि प्ररूपणा और स्वामित्व प्ररूपणा। इनमें से सादि-अनादि प्ररूपणा मूल प्रकृतिविषयक उत्तर प्रकृतिविषयक के भेद से दो प्रकार की है । इन दोनों में से पहले मूलप्रकृतिविषयक सादि-अनादि विकल्पों की प्ररूपणा करते हैं। प्रदेशसत्कर्मापेक्षा मूल प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा सत्तण्हं अजहन्नं तिविहं सेसा दुहा पएसंमि । मूलपगईसु आउस्स साइ अधुवा य सव्वेवि ॥१५३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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