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श्रमणसंघ के भीष्म-पितामह श्रमणसूर्य स्व० गुरुदेव श्री मिश्रीमल जी महाराज स्थानकवासी जैन परम्परा के ५०० वर्षों के इतिहास में कुछ ही ऐसे गिने-चने महापुरुष हुए हैं जिनका विराट व्यक्तित्व अनन्त असीम नभोमण्डल की भाँति व्यापक और सीमातीत रहा हो। जिनके उपकारों से न सिर्फ स्थानकवासी जैन, न सिर्फ श्वेताम्बर जैन, न सिर्फ जैन किन्तु जैन-अजैन, बालक-वृद्ध. नारी-पुरुष, श्रमण-श्रमणी सभी उपकृत हुए हैं और सब उस महान् विराट व्यक्तित्व की शीतल छाया से लाभान्वित भी हुए हैं। ऐसे ही एक आकाशीय व्यक्तित्व का नाम है-श्रमण-सूर्य प्रवर्तक मरुधरकेशरी श्री मिश्रीमल जी महाराज ?
पता नहीं वे पूर्वजन्म की क्या अखूट पुण्याई लेकर आये थे कि बाल-सूर्य की भाँति निरन्तर तेज-प्रताप प्रभाव यश और सफलता की लेजस्विता, प्रभास्वरता से बढ़ते ही गये, किन्तु उनके जीवन की कुछ. विलक्षणता यही है कि सूर्य मध्याह्न के बाद क्षीण होने लगता है, किन्तु यह श्रमणसूर्य जीवन के मध्याह्नोत्तर काल में अधिक से अधिक दीप्त होता रहा, ज्यों-ज्यों यौवन की नदी बुढ़ापे के सागर की ओर बड़ती गई त्यों-त्यों उसका प्रवाह तेज होता रहा, उसकी धारा विशाल और विशालतम होतो गई, सोमाएँ व्यापक बनती गईं, प्रभाव-प्रवाह सौ-सौ धाराएँ बनकर गाँव-नगर-बन-उपवन सभी को तृप्त परितृप्त करता गया। यह सूर्य डूबने की अन्तिम घड़ी, अन्तिम क्षण तक तेज दीप्त रहा, प्रभाव से प्रचण्ड रहा और उसकी किरणों का विस्तार अनन्त असीम गगन के दिक्कोणों को छूता रहा ।।
जैसे लडडू का प्रत्येक दाना मीठा होता है, अंगूर का प्रत्येक अंश मधुर होता है, इसी प्रकार गुरुदेव श्री मिश्रोमल जी महाराज का
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