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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६
१८७ अमुक प्रमाण वाला जघन्य स्थितिबंध तभी घटित हो सकता है, जब कि कोई जीव उतनी स्थिति का बंधक हो। यदि अमुक कर्मप्रकृति का अमुक प्रमाण जघन्य स्थितिबंध कहा जाये और उसका कोई बांधने वाला जीव न हो तो उसे स्थितिबंध के रूप में नहीं माना जा सकता है। वैक्रियषट्क की २/७ सागरोपम प्रमाणस्थिति का बंधक तो अन्य कोई जीव नहीं है, परन्तु उसको हजार से गुणित करके पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर जो रहता है, उतना जघन्य स्थितिबंध असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव बांधते हैं, इसीलिए वैक्रियषट्क की जघन्यस्थिति के लिये हजार से गुणा करने के लिये कहा
है। सारांश यह हुआ कि पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून २८५, ५/७ सागरोपम वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति है। इसके बंधक असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही होते हैं।
इस प्रकार से समस्त प्रकृतियों की जघन्यस्थिति का प्रमाण जानना चाहिये। तथा इन समस्त कर्मप्रकृतियों की जघन्य या उत्कृष्ट स्थिति अपनी-अपनी अबाधा से न्यून निषेकदलरचना की विषयभूत समझना चाहिये । यानी जघन्य या उत्कृष्ट स्थिति का जितना अबाधाकाल हो उतना काल छोड़कर शेष स्थिति-समयों में कर्मदलिकों की निषेकरचना होती है, अबाधा के समयों में नहीं होती है। ___ इस प्रकार से मूल और उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति का प्रमाण, उनके अबाधाकाल का प्रतिपादन करने के बाद अब निषेक का विचार करते हैं। उसके विचार के दो द्वार हैं-१
१ प्रकृतियों की जघन्य स्थिति के सम्बन्ध में विभिन्न ग्रन्थों के दृष्टिकोण परि
शिष्ट में देखिए। २ अबाहूणिया कम्मठिई कम्मनिसे गो।
-भगवतीसूत्र ३ अबाधाकाल के बाद प्रतिसमय उदय आने योग्य द्रव्य के प्रमाण को निषेक
कहते हैं।
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