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________________ पंचसंग्रह : ५ अनन्तरोपनिधा और २ परम्परोपनिधा । 2 उनमें से पहले अनन्तरोपनिधा से निषेक का विचार करते हैं । अनन्तरोपनिधा से निषेकविचार १८८ मोत्तमबाहासमए बहुगं तयणंतरे रयइ दलियं । तत्तो विसेसहीणं कमसो नेयं ठिई जावः ॥ ५०॥ शब्दार्थ - मोत्तुमबाहासमए - अबाधा के समयों को छोड़कर, बहुगंअधिक द्रव्य, तयणंतरे— उसके बाद के समय में, रयइ- - रचना होती है, दलियं - दलिक की तत्तो- तत्पश्चात्, विसेस होणं - विशेष - विशेष हीन, कमसो - अनुक्रम से, नेयं- - जानना चाहिये, ठिइ — स्थिति, जाव - पर्यन्त | गाथार्थ - अबाधा के समयों को छोड़कर उसके बाद के समय में अधिक दलिक - पुद् गलद्रव्य की रचना होती है और तत्पश्चात् उत्तरोत्तर समयों में अनुक्रम से विशेष विशेष हीन । इस प्रकार बध्यमान स्थिति के चरम समय पर्यन्त जानना चाहिये | विशेषार्थ - यहाँ आचार्य ने अनन्तरोपनिधा से कर्मदलिकों की स्थापना का निर्देश किया है । १ पूर्व समय, स्थान आदि से अनन्तरवर्ती उत्तर समय, स्थान आदि में प्राप्त द्रव्यप्रमाण का विचार, मार्गण, गवेषण करना अनन्तरोपनिधा कहलाती है । प्रथम समय, स्थान आदि की अपेक्षा मध्य के समयों आदि का अन्तराल देकर प्राप्त स्थान के द्रव्यप्रमाण का विचार, मार्गण, गवेषण करने को परंपरोपनिधा कहते हैं । ३ तुलना कीजिये - मोत्तूण सगमबाहे, पढमाए ठिइए बहुतरं दव्वं । एत्तो विसेसहीणं जावुक्कोसं ति सव्वेसि ॥ Jain Education International -- कर्मप्रकृति, बंधनकरण, गा. ८२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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