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पंचसंग्रह : ५
अनन्तरोपनिधा और २ परम्परोपनिधा । 2 उनमें से पहले अनन्तरोपनिधा से निषेक का विचार करते हैं ।
अनन्तरोपनिधा से निषेकविचार
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मोत्तमबाहासमए बहुगं तयणंतरे रयइ दलियं ।
तत्तो विसेसहीणं कमसो नेयं
ठिई जावः ॥ ५०॥
शब्दार्थ - मोत्तुमबाहासमए - अबाधा के समयों को छोड़कर, बहुगंअधिक द्रव्य, तयणंतरे— उसके बाद के समय में, रयइ- - रचना होती है, दलियं - दलिक की तत्तो- तत्पश्चात्, विसेस होणं - विशेष - विशेष हीन, कमसो - अनुक्रम से, नेयं- - जानना चाहिये, ठिइ — स्थिति, जाव - पर्यन्त | गाथार्थ - अबाधा के समयों को छोड़कर उसके बाद के समय में अधिक दलिक - पुद् गलद्रव्य की रचना होती है और तत्पश्चात् उत्तरोत्तर समयों में अनुक्रम से विशेष विशेष हीन । इस प्रकार बध्यमान स्थिति के चरम समय पर्यन्त जानना चाहिये |
विशेषार्थ - यहाँ आचार्य ने अनन्तरोपनिधा से कर्मदलिकों की स्थापना का निर्देश किया है ।
१ पूर्व समय, स्थान आदि से अनन्तरवर्ती उत्तर समय, स्थान आदि में प्राप्त द्रव्यप्रमाण का विचार, मार्गण, गवेषण करना अनन्तरोपनिधा कहलाती है । प्रथम समय, स्थान आदि की अपेक्षा मध्य के समयों आदि का अन्तराल देकर प्राप्त स्थान के द्रव्यप्रमाण का विचार, मार्गण, गवेषण करने को परंपरोपनिधा कहते हैं ।
३ तुलना कीजिये -
मोत्तूण सगमबाहे, पढमाए ठिइए बहुतरं दव्वं । एत्तो विसेसहीणं जावुक्कोसं ति सव्वेसि ॥
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-- कर्मप्रकृति, बंधनकरण, गा. ८२
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