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________________ जितनी की स्थिति बंधपत की जा बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५० १८६ किसी भी विवक्षित समय में बंधते हुए किसी भी प्रकृति रूप में जितनी कार्मणवर्गणायें परिणत हों वे वर्गणायें उस समय उस प्रकृति की जितनी स्थिति बंधे, उतनी स्थिति पर्यन्त क्रमशः फल देने के लिये व्यवस्थित रीति से स्थापित की जाती हैं, उसे निषेक कहते हैं। मात्र अबाधाकाल में दलरचना नहीं होती है। क्योंकि इस प्रकार की रचना न हो तो अबाधाकाल बीतने के बाद कितनी और कौन सी वर्गणाओं के फल का अनुभव करना, यह निश्चित नहीं हो सकता है और उससे अव्यवस्था हो जायेगी और अव्यवस्था होने से अमुक प्रमाण में बंधी हुई स्थिति का कुछ भी अर्थ नहीं रहेगा। किन्तु बंध समय में बंधी हुई वर्गणाओं की निश्चित रूप से रचना होने से किचिन्मात्र भी अव्यवस्था नहीं होती हैं। वह रचना जिस प्रकार से होती है, अब यह स्पष्ट करते हैं जब किसी भी कर्म का बंध हो, तब उसकी जितनी स्थिति का बंध - हो और उस स्थिति के प्रमाण में जितना अबाधाकाल हो, उस अबाधाकाल के समयों को छोड़कर दलरचना होती है—'मोत्त मबाहासमए' और अबाधा के समयों को छोड़कर होने वाली दल रचना का क्रम इस प्रकार जानना चाहिये कि अबाधाकाल की समाप्ति के अनन्तर के प्रथम समय में प्रभूत दलिक की स्थापना को जाती है-'बहुगं तयणंतरे रयइ दलियं' और उसके बाद के उत्तरोत्तर समयों में अनुक्रम से विशेषहीनविशेषहीन दलिकरचना होती है। यह क्रम विवक्षित समय में बंधी हुई स्थिति के चरम समय पर्यन्त जानना चाहिये-कमसो नेयं ठिई जाव'। उक्त कथन का तात्पर्य यह हुआ कि इस प्रकार से रचना होने से अबाधाकाल के अनन्तरवर्ती पहले समय में प्रभूत दलिक का फलानुभव होता है, उसके बाद के दूसरे समय में विशेषहीन दलिक के फल का अनुभव होता है । इस प्रकार उत्तर-उत्तर के समय में पूर्व-पूर्व के समय की अपेक्षा हीन-हीन दलिक के फल का अनुभव किया जाता है । इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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