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पंचसंग्रह : ५ प्रकार प्रत्येक किसी विवक्षित समय में बंधी हुई स्थिति के चरम समय पर्यन्त जानना चाहिये। जिस समय जितने रस वाली और जितनी वर्गणायें फलदान के लिये नियत हुई हों, उस समय उतने रस वाली और उतनी वर्गणायें फल देती हैं और फल देकर आत्मप्रदेशों से छूट जाती हैं। परन्तु यह नियम करणों (आत्म-अध्यवसाय, परिणाम) की प्रवृत्ति न होने से पूर्व तक ही समझना चाहिये। क्योंकि करणों के द्वारा अनेक प्रकार के परिवर्तन हो सकते हैं। __इस प्रकार की रचना का उक्त कथन आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की दलिक रचना के विषय में समझना चाहिये। आयुकर्म इसका अपवाद है । अतः उससे सम्बन्धित विशेष को स्पष्ट करते हैंआउस्स पढम समया परभविया जेण तस्स उ अबाहा।
शब्दार्थ-आउस्स-आयु के, पढमसमया-प्रथम समय से ही, परभविया -परभव सम्बन्धी, जेण-क्योंकि, तस्स-उसकी, अबाहा- अबाधा ।
___ गाथार्थ-आयु के प्रथम समय से ही दलरचना होती है। क्योंकि उसकी अबाधा परभव की आयु सम्बन्धी होती है। विशेषार्थ-गाथा के पूर्वार्ध में चारों आयुयों में से किसी भी आयु का बंध होने पर प्रथम समय से ही पूर्व क्रमानुसार दल रचना होने का स्पष्टीकरण किया है कि प्रथम समय में अधिक दलिक स्थापित किया जाता है, दूसरे समय में विशेषहीन, तीसरे समय में उससे विशेषहीन दलिक स्थापित किया जाता है। इस प्रकार बध्यमान आयु के चरम समय तक जानना चाहिये ।
आयुकर्म में अन्य सात कर्मों की तरह अबाधाकाल को छोड़कर रचना न होकर प्रथम समय से ही दलिक रचना होने का कारण यह है कि 'परभविया जेण तस्स अबाहा' अर्थात् बध्यमान आयु की अबाधा परभव सम्बन्धी-अनुभूयमान आयु सम्बन्धी है, जिससे वह अबाधा उस बध्यमान आयु की सत्ता की विषयभूत नहीं कहलाती है, जबकि दूसरे
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