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पंचसंग्रह : ५ होता है, उसको हजार से गुणित करके पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर प्राप्त समय प्रमाण वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति का प्रमाण जानना चाहिये। ___ यद्यपि वैक्रियद्विक और नरकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। इसलिए उसको मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर २/७ सागरोपम प्राप्त होते हैं और देवद्विक की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है, जिसे मिथ्यात्व की स्थिति द्वारा भाग देने पर १/७ सागरोपम प्राप्त होते हैं । लेकिन इस सम्बन्ध में यह जानना चाहिये कि देवद्विक की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होते हुए भी उसकी जघन्य स्थिति का प्रमाण प्राप्त करने के लिए बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति की विवक्षा की है । क्योंकि अनिष्ट अर्थ में शास्त्र की प्रवृत्ति नहीं होती है, ऐसा पूर्व पुरुषों का वचन है । इसलिये २७ सागरोपम को एक हजार से गुणित करके पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर जो शेष रहे उतनी देवद्विक की भी जघन्य स्थिति है। इसीलिये यहाँ वैक्रियशरीर आदि छहों प्रकृतियों के लिए बीस कोडाकोडी सागरोपम को मिथ्यात्व की स्थिति से भाग देने का संकेत किया है । शतकचूणि में भी इसी प्रकार बताया है____ 'देवगई......................"नरयाणपुब्बीणं जहन्नओ ठिइबंधो सागरोवमस्स सत्तभागा सहस्स गुणियालिओवमासंखेज्जभागेणूणया ।'
प्रश्न-वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति का इतना प्रमाण बतलाने का क्या कारण है ?
उत्तर-वैक्रियषट्क रूप छह प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव करते हैं और वे इन प्रकृतियों की इतनी ही स्थिति बांधते हैं, इससे न्यून नहीं बांधते हैं। किसी भी कर्मप्रकृति का १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी वैक्रियषट्क की स्थिति इसी प्रकार बताई है।
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